अपना काम तो था समझाना ;
क्या करते माना न ज़माना ?1।।
कुछ ने माना झूठ ज़रूरी ,
बहुतों ने सच नाहक जाना ।।2।।
महलों का होकर कारीगर
,
ढूँढूँ ख़ुद को एक ठिकाना !!3!!
बस माँ ही अपने हिस्से का ,
बच्चों को दे सकती खाना ।।4।।
बेमतलब महबूब का आना ,
आते ही जो रटता जाना ।।5।।
धाक जमाने भर को घर में
,
ग़ैर ज़रूरी कुछ मत लाना ।।6।।
जान सके पढ़-पढ़ न कभी हम ,
इश्क़ में पड़कर इश्क़ को जाना ।।7।।
भीख मँगा मत पेट को पालो ,
इससे अच्छा ज़ह्र है खाना ।।8।।
जान सके पढ़-पढ़ न कभी हम ,
इश्क़ में पड़कर इश्क़ को जाना ।।7।।
भीख मँगा मत पेट को पालो ,
इससे अच्छा ज़ह्र है खाना ।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
2 comments:
बहुत सुन्दर रचना...!!
धन्यवाद ! Ghanshyam kumar जी !
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