बहुत कम वक़्त को पर मेरी चाहत की तो थी उसने ॥
चलो झूठी सही कुछ दिन मोहब्बत
की तो थी उसने ॥
मेरे रोने की हँसने की उसे
अब कुछ नहीं पर्वा ,
कभी मेरे लिए दिन रात इबादत
की तो थी उसने ॥
नहीं ताल्लुक़ कोई मुझसे उसे
आज ऐसी नौबत है ,
कभी हर रोज़ ही ख़त-ओ-किताबत की तो थी उसने ॥
बयाँ मेरे खिलाफ़ अपने वो
देते आज फिरता है ,
तसल्ली है मेरी कल तक हिमायत
की तो थी उसने ॥
ज़रा सी भूल पर आज उसने दे
दी कुछ सज़ा तो क्या ?
मेरे कितने गुनाहों पर मुरव्वत
की तो थी उसने ॥
नहीं लेकर खड़ा वो हार आज
इस जीत पर मेरी ,
तो क्या हर बात पर कल तक
तो इज़्ज़त की तो थी उसने ॥
नहीं शामिल हुआ मेरे जनाज़े
में तो क्या रोना ,
कभी सर्दी में खाँसी में
भी शिर्क़त की तो थी उसने ॥
नहीं वो बन सका मेरा शरीके
ज़िंदगी लेकिन ,
लिपट कर मुझसे भी रोकर ही रुख़्सत की तो थी उसने ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
2 comments:
बहुत उम्दा ग़ज़ल !!
धन्यवाद ! Lekhika 'Pari M Shlok ' जी !
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