Saturday, March 16, 2013

68 : ग़ज़ल - बहुत कम वक़्त को


बहुत कम वक़्त को पर मेरी चाहत की तो थी उसने ॥
चलो झूठी सही कुछ दिन मोहब्बत की तो थी उसने ॥
मेरे रोने की हँसने की उसे अब कुछ नहीं पर्वा ,
कभी मेरे लिए दिन रात इबादत की तो थी उसने ॥
नहीं ताल्लुक़ कोई मुझसे उसे आज ऐसी नौबत है ,
कभी हर रोज़ ही ख़त-ओ-किताबत की तो थी उसने ॥
बयाँ मेरे खिलाफ़ अपने वो देते आज फिरता है ,
तसल्ली है मेरी कल तक हिमायत की तो थी उसने ॥
ज़रा सी भूल पर आज उसने दे दी कुछ सज़ा तो क्या ?
मेरे कितने गुनाहों पर मुरव्वत की तो थी उसने ॥
नहीं लेकर खड़ा वो हार आज इस जीत पर मेरी ,
तो क्या हर बात पर कल तक तो इज़्ज़त की तो थी उसने ॥
नहीं शामिल हुआ मेरे जनाज़े में तो क्या रोना ,
कभी सर्दी में खाँसी में भी शिर्क़त की तो थी उसने ॥
नहीं वो बन सका मेरा शरीके ज़िंदगी लेकिन ,
लिपट कर मुझसे भी रोकर ही रुख़्सत की तो थी उसने ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 


2 comments:

Unknown said...

बहुत उम्दा ग़ज़ल !!

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Lekhika 'Pari M Shlok ' जी !

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