Friday, March 1, 2013

58 : ग़ज़ल - सर जो पत्थर से


सर जो पत्थर से ये टकरा के फट गया होता ।।
ज़िंदगानी का ये झंझट निपट गया होता ।।1।।
मैं भी जो तेरा बुरा चाहने लगा होता ,
सर तेरा काँधे से चुटकी में हट गया होता ।।2।।
तुझसे आता है सनम मुझको हारने में मज़ा ,
वर्ना इक फूँक से पासा पलट गया होता ।।3।।
बेवफ़ा मुझको चिढ़ाने पे क्यों तुला है तू ,
चाहता ग़ैर को तो कब का पट गया होता ।।4।।
हर तरफ़ घूम रहे साँप , लोमड़ी , गीदड़ ,
काश ये शह्र न जंगल से सट गया होता ।।5।।
ऐसी फिसलन पे तेरे पाँव पड़ चुके थे गर ,
मैं बचाता जो तुझे ख़ुद रिपट गया होता ।।6।।
वो जो आए न अगर एन वक़्त पर होते ,
कुछ न कुछ हादसा सचमुच ही घट गया होता ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति  

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