ज़रा सी ख़ता की सज़ा ऐसी पाई ।।
ओ रब्बा दुहाई , दुहाई , दुहाई ।।1।।
गुनाहों की दल दल में कुछ
यूँ फँसे हम ,
कि मरकर ही फ़िर जान अपनी
बचाई ।।2।।
वो बहरे नहीं हैं कि हैं
हम ही पागल ,
जो नक़्क़ार ख़ाने में तूती
बजाई ।।3।।
वो सावन के अंधे हैं देखें
जिधर भी ,
उन्हे बस हरा ही हरा दे दिखाई ।।4।।
समझने दो उनको समझना है जो
कुछ ,
नहीं शक़ की दुनिया में कोई
दवाई ।।5।।
मेरी मौत का उनको सचमुच है
सदमा ,
तभी तो अभी तक न फूटी रुलाई ।।6।।
जब अच्छा ही अच्छा किया तो
ये जाना ,
कि अच्छाई सबसे बड़ी है बुराई ।।7।।
शिकार उनको करने की आदत थी
इतनी ,
न कोई मिला ख़ुद पे गोली चलाई ।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
4 comments:
अत सुन्दर अभिव्यक्ति
धन्यवाद ! gope mishra जी !
बहुत सुन्दर...
धन्यवाद ! Ghanshyam Kumar जी !
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