Tuesday, May 26, 2015

164 : ग़ज़ल - जी रहा हूँ ॥


ज़ख़्म ख़ुद कर-कर उन्हे ख़ुद सी रहा हूँ  ।।
अश्क़ का दर्या बहा फिर पी रहा हूँ ।।1।।
कुछ न पूछो हो गया क्यों छाछ से बद ?
मैं जो उम्दा से भी उम्दा घी रहा हूँ ।।2।।
उनकी नज़रों में कभी इक वक़्त था जब ,
मैं ख़ुदा से भी कहीं आली रहा हूँ ।।3।।
मुझको मत बतलाओ वह कैसी जगह है ?
तुम जहाँ पर हो कभी मैं भी रहा हूँ ।।4।।
ज़िंदगी अपनी न अब वो रह गए हैं ,
इसलिए तो उनके बिन भी जी रहा हूँ ।।5।।
वो जहाँ भी हैं ज़मीं या आस्माँ पर ,
लेकिन उनका रहनुमा मैं ही रहा हूँ ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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