लगा होंठ
अपने मेरी कर दो जीवन-चाय तुम मीठी ॥
रहे तुम
भी अछूते औ’ हृदय मेरा रहा रीता
।
समय दोनों
का जो एकांत के सान्निध्य में बीता ।
कि अब जब
आ गए मेले में तो मेरे निवेदन की -
करो स्वीकार
पहली और अंतिम प्रेम की चीठी ॥
पहाड़ों
से खड़े पैरों को गति औ’ लास्य मिल
जाए ।
निरंतर
चुप पड़े होठों को स्वर औ’ हास्य मिल
जाए ।
तुम्हारे
हाथ में है , हाथ मेरा थाम लो
यदि तुम –
कि मुझ
अंधे को मिल जाएगा कोई लक्ष्य या वीथी ॥
( चीठी=पत्र , लास्य=नृत्य ,वीथी=मार्ग )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
3 comments:
उम्दा है |
धन्यवाद ! Asha Saxena जी !
धन्यवाद ! Madan Mohan Saxena जी !
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