लापता-गुमनाम हूँ ।।
इस क़दर मैं आम हूँ ।।
प्यास से लबरेज़ मैं ,
और उनका जाम हूँ ।।
चाय से परहेज़ , यूँ
दार्जिलिंग-आसाम हूँ ।।
गर्मियों में खौलती ,
भेड़ों का हज्जाम हूँ ।।
जिस्म में मछली के इक
,
चकवा तश्नाकाम हूँ ।।
अहमक़ औ' नादान मैं ,
इल्म का अंजाम हूँ ।।
बिन दरो-दीवार का ,
आस्माँ सा बाम हूँ ।।
नाँ हूँ सुब्हे-ज़िंदगी
,
नाँ अजल की शाम हूँ ।।
दुश्मनों का दर्देसर ,
यारों को आराम हूँ ।।
एक मानव धर्म बस ,
हिंदू नाँ इस्लाम हूँ ।।
दुश्मनों का दर्देसर ,
यारों को आराम हूँ ।।
एक मानव धर्म बस ,
हिंदू नाँ इस्लाम हूँ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
No comments:
Post a Comment