Sunday, June 15, 2014

मुक्तक : 542 - उजड़े इक गाँव से वो


उजड़े इक गाँव से वो मुख्य नगर बन बैठा ॥
ढीला अंडा था परिंदा-ए-ज़बर बन बैठा ॥
बिलकुल उम्मीद नहीं जिसके थी पनपने की ,
देखते-देखते वो पौधा शजर बन बैठा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

2 comments:

संजय भास्‍कर said...

बहुत बढ़िया ग़ज़ल....

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! संजय भास्कर जी ! जो आपको मेरा ये 'मुक्तक'पसंद आया................

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...