Monday, June 30, 2014

137 : ग़ज़ल - अंधे ने जैसे साँप को


अंधे ने जैसे साँप को रस्सी समझ लिया ।।
चश्मिश ने एक बुढ़िया को लड़की समझ लिया ।।1।।
धागा पिरो दिया था सुई में क्या इक दफ़्आ ,
लोगों ने मुझको ज़ात का दर्ज़ी समझ लिया ।।2।।
जानूँ न किस अदा से था मैं बोझ ढो रहा ,
पेशे से सबने मुझको क़ुली ही समझ लिया ।।3।।
झाड़ू लगाते देख के अपने ही घर मुझे ,
पूरे नगर-निगम ने ही भंगी समझ लिया ।।4।।
नाले में धो रहा था मैं इक बार चादरें ,
यारों ने अस्पताल का धोबी समझ लिया ।।5।।
पीने से दारू रोक दिया था कभी उसे ,
उसने तो मुझको जन्म का बैरी समझ लिया ।।6।।
वीराने में जवान बहन-भाई देखकर ,
बहुतों ने उनको प्रेमिका-प्रेमी समझ लिया ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

5 comments:

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! मयंक जी !

प्रतिभा सक्सेना said...

गज़ब हो गया ये तो !

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! प्रतिभा सक्सेना जी !

दिगम्बर नासवा said...

वाह ... गज़ब के शेर हैं सारे ... बहुत ही लजवाब और नए अंदाज़ की ग़ज़ल ... बधाई ...

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Digamber Naswa जी !

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

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