Saturday, June 7, 2014

मुक्तक 537 - ताउम्र कराहों की न


ताउम्र कराहों की न आहों की सज़ा दो ॥
मत एक भूल पर सौ गुनाहों की सज़ा दो ॥
जूतों को छीन-फाड़ दो टाँगें तो न काटो ,
चाहो तो बबूलों भरी राहों की सज़ा दो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (08-06-2014) को ""मृगतृष्णा" (चर्चा मंच-1637) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

Vinay said...

वाह जी वा!

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Vinay Prajapati जी !

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...