Sunday, June 8, 2014

134 : ग़ज़ल - यह यक़ीं मुझको भी आख़िरकार



यह यक़ीं मुझको भी आख़िरकार करना ही पड़ा ॥
इस ज़माने में नहीं है मालोज़र से कुछ बड़ा ॥
क़ीमतों की बात है सब कुछ बिकाऊ है यहाँ ,
जिस्म भी और प्यार भी ,क्या दीन औ' ईमान क्या ?
फ़र्ज़ रखकर ताक पर सब हक़ की बातें कर रहे ,
जिसको देखो उसको चस्का मुफ़्तखोरी का लगा ॥
कामयाबी और बरबादी का अपना राज़ है ,
है कहीं कोशिश कहीं क़िस्मत का भी कुछ मामला ॥
अपनी वहशत,ज़ालिमाना हरकतों से सच कहूँ ,
आदमी के सामने शैतान भी फ़ीका पड़ा ॥
इस तरह भी कुछ न कुछ बिजली बचत हो जायेगी ,
धूप में जलते हुए बल्बों को हम गर दें बुझा ॥
बेचते हैं  जो शराब औ'शौक़ से पीते भी हैं  ,
रखते हैं वो भी ख़िताब इस शहर में नासेह का ॥
इल्तिजा से बन्दगी से जब न कुछ हासिल हुआ ,
पहले सब कुछ था ख़ुदा अब कुछ नहीं उसका ख़ुदा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

5 comments:

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! मयंक जी..................

Asha Joglekar said...

सचमुच कितनी बार हम देखते हैं कि जिनका काम है कि वह दिन होते ही स्ट्रीट लाइट बंद करें ुनको स भल की सजा मिलनी चाहिये।

दिगम्बर नासवा said...

सटीक बातें हैं हर शेर में .... जल्दी नहीं समझे तो बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी ...

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! आशा जोगलेकर जी !

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Digamber Naswa जी !

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