Tuesday, June 17, 2014

मुक्तक : 544 - डर के साये में कुछ


डर के साये में कुछ इस तरह बसर होती है ॥
लब उठाए हँसी तो आँख अश्क़ ढोती है ॥
दिल तो रहता है उनींदा ही उबासी लेता ,
अक़्ल भी बेच-बेच कर के घोड़े सोती है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

2 comments:

संजय भास्‍कर said...

खुबसूरत अल्फाजों में पिरोये जज़्बात

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! संजय भास्कर जी !

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...