Sunday, February 9, 2014

116 : ग़ज़ल - मेरी धड़कन की तो


मेरी धड़कन की तो रफ़्तार बिगड़ जाती है ।।
जब हथेली वो मेरी चूम पकड़ जाती है ।।1।।
जब शुरूआत बिगड़ जाए तो अक़्सर देखा ,
बात छोटी से भी छोटी हो बिगड़ जाती है ।।2।।
खुरदुरेपन से निकल जाएँ जभी सोचें बस ,
अपनी चिकनाई तभी और रगड़ जाती है ।।3।।
जिसकी सुह्बत को तरसते हैं अपनी क़िस्मत से ,
हमसे अक़्सर वो न मिलने को बिछड़ जाती है ।।4।।
मेरी चादर है कि रूमाल है कोई यारों ,
सिर को ढँकने जो लगूँ रान उघड़ जाती है ।।5।।
उसको मैं सुल्ह को जितना ही मनाना चाहूँ ,
नाज़नीं उतना वो और-और झगड़ जाती है ।।6।।
ज़िंदगी जैसे लिबास इक हो किसी मुफ़्लिस का ,
कितने पैबंद लगाऊँ ये उधड़ जाती है ।।7।।
मैं जो मंज़िल की तरफ़ अपने बढ़ाऊँ दो डग ,
मुझसे ये चार क़दम दूर को बढ़ जाती है ।।8।।
काली करतूतों के खुलने के नहीं डर से ये ,
आदतन ही मेरी पेशानी सुकड़ जाती है ।।9।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

2 comments:

Unknown said...

बहुत शानदार लिखा ... खासतौर पर चादर है या रुमाल कोई वाला अशआर !!

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Lekhika 'Pari M Shlok' जी !

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