ना सुनहरा स्वप्न बुनती ना व्यथित होती ।।
न निरंतर जागती न अनवरत
सोती ।।
आग मन की अश्रु जल
से यदि बुझा करती ,
देखती कम आँख निःसंदेह
बस रोती ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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