Saturday, February 15, 2014

117 : ग़ज़ल - इस दुनिया में मेरे जैसा



इस दुनिया में मेरे जैसा शायद कोई और नहीं ।।
सब पे अपने-अपने छत हैं बस मेरा ही ठौर नहीं ।।1।।
डाकू ,चोर ,लुटेरे ,तस्कर ,ठग जग में पग-पग पर ,पर ;
चित्त चुराने वाला मिलता कोई माखन चौर नहीं ।।2।।
उसको छोटे-छोटे कीट-पतंगे साफ़ दिखें लेकिन ,
हम जैसों पर उसकी पैनी नज़रें करतींं ग़ौर नहीं ।।3।।
मनवा कर रहता वो अपनी हर बात ज़माने से ,
बेशक़ उसके पाँव में जूते सिर पर कोई मौर नहीं ।।4।।
अपने पैर खड़ी नारी का मान बहुत ससुराल में अब ,
वो बहुओं पर भारी पड़ती सासों वाला दौर नहीं ।।5।।
हैराँ हूँ क्यों चाट रहे हैं कुत्ते-बिल्ली आपस में ,
उनका तो दुश्मन से प्यार-मोहब्बत वाला तौर नहीं ?6।।
सोना-चाँदी , मानव , पशु-पक्षी , धरती-आकाश तलक ,
सब कुछ वश में कर लोगे पर मन पर ज़ोर नहीं ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

4 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (16-02-2014) को वही वो हैं वही हम हैं...रविवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1525 में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! मयंक जी !

virendra sharma said...


खूबसूरत शब्द चित्र उकेरा है लीलापुरुष का ,त्रिभंगी का। …।

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Virendra Kumar Sharma जी !

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