Tuesday, September 3, 2013

105 : ग़ज़ल - चाहत के कुछ मुताबिक़



चाहत के कुछ मुताबिक़ , करने नहीं वो देता ।।
पानी को रोक रखता , बहने नहीं वो देता ।।1।।
मैं आस्माँ के ऊपर , तालिब हूँ देखने का ,
मेरी झुकी नज़र को , उठने नहीं वो देता ।।2।।
आज़ाद हूँ मैं जैसा , जी चाहे झूठ बोलूँ ,
सच झूठ-मूठ में भी , कहने नहीं वो देता ।।3।।
जब तक खड़े हैं चलने , को मारता है कोड़े ,
चलने लगो तो आगे , बढ़ने नहीं वो देता ।।4।।
करता है यों हुक़ूमत , अपने सिवा किसी को ,
टुक बादशाह भरसक बनने नहीं वो देता ।।5।।
मुमकिन न रह गया है , अब उसके साथ रहना ,
देता है दम-ब-दम ग़म , हँसने नहीं वो देता ।।6।।
मरहम नहीं लगाता , उलटे कुरेदता है ,
हर हाल ज़ख्म मेरे , भरने नहीं वो देता ।।7।।
हरगिज़ नहीं हूँ यारों , मैं बाँझ पेड़ लेकिन ,
गुंचों को नोचकर ही , फलने नहीं वो देता ।।8।।
रखता है मुझ पर इतनी , तो बंदिशें लगाकर ,
ख़्वाबों को ख़्वाब तक में , तकने नहीं वो देता ।।9।।
ये ज़िन्दगी नहीं है , हरगिज़ अज़ीज़ मुझको ,
जीता हूँ क्योंकि सचमुच , मरने नहीं वो देता ।।10।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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