वह पहले सा अब न लुभाता ॥
मैं भी उसको खींच न पाता ॥
दिखते थे मुख बुझे-बुझे से ,
उन पर कान्ति नहीं खिलती थी ।
इक दूजे से रोज मिले बिन ,
चित को शान्ति नहीं मिलती थी ।
मैं अब उसके गेह न जाऊँ –
वो भी मेरे ठौर न आता ॥
जनम-जनम तक साथ निभाने
की बातें हम करते थे ।
है संबंध अटूट हमारा
आपस में दम भरते थे ।
पहले था साँकल से भी पक्का –
अब धागे सा हमारा है नाता ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
No comments:
Post a Comment