फिर आज याद मुलाक़ात की वो रात आई ॥
लिए हथेली पे क्यूँ मौत ख़ुद हयात आई ?
गुजर गए के लिए अगर मैं बस रोऊँ ।
कि वक़्त ऐसे तो मैं और-और भी खोऊँ ।
बिसार कर बीती सुध अब लूँ आगे की ,
चली गई जो घड़ी वो किसके हाथ आई ?
कहीं भी रोक लो मुमकिन हो तो दिल आने को ।
ये खूबरुई तो है बस हमें बनाने को ।
बनाए चेहरों को मासूम संगदिल फिरते ,
समझ इक उम्र के बाद हमें ये बात आई ॥
जिये कोई कि मरे नहीं हमारा ग़म ।
वो माना है दुश्मन पड़ौसी है ताहम ।
ख़मोश कैसे रहें कहाँ से लाएँ सबिर ?
यहाँ पे मातम है वहाँ बरात आई ॥
कि उनके आगे हमें हमेशा झुकना पड़ा ।
वो जब चले तो चले रुके तो रुकना पड़ा ।
लगाई हमने कभी जो भूले शर्त कोई ,
वो जीते अपने तो हाथों में सिर्फ़ मात आई ॥
[हयात=जीवन/खूबरुई=सुंदरता/संगदिल=पाषाण-हृदय/ताहम=फिर भी/ख़मोश=चुप/सबिर=धैर्य ]
[हयात=जीवन/खूबरुई=सुंदरता/संगदिल=पाषाण-हृदय/ताहम=फिर भी/ख़मोश=चुप/सबिर=धैर्य ]
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
2 comments:
श्री राम नवमी की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (29-03-2015) को "प्रभू पंख दे देना सुन्दर" {चर्चा - 1932} पर भी होगी!
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद ! Onkar जी !
Post a Comment