Monday, March 9, 2015

160 : ग़ज़ल - इतनी तो मसर्रत दे ॥



इतनी तो मसर्रत दे ।।
अब ग़म न दे , शामत दे ।।1।।
बिक जाऊँगा मैं भी गर ,
मुँहमाँगी जो क़ीमत दे ।।2।।
सब क़र्ज़ चुका दूँगा ,
दो रोज़ की मोहलत दे ।।3।।
होने को तरोताज़ा ,
आराम की फ़ुर्सत दे ।।4।।
बोझ अपना सकूँ ढो ख़ुद ,
रब इतनी तो ताक़त दे ।।5।।
नफ़्रत तो न दे चाहे ,
मत मुझको मोहब्बत दे ।।6।।
मत जिस्म अकेले को ,
दिल को भी नज़ाकत दे ।।7।।
मत सिर्फ़ अमीरों को ,
ग़ुरबा को भी दौलत दे ।।8।।
गुमनाम को मशहूरी ,
बदनाम को शुह्रत दे ।।9।।
कुछ शौक़ दे जीने को ,
कुछ ख़्वाब या हसरत दे ।।10।।
जीने की न दे तो फिर ,
मरने की इजाज़त दे ।।11।।
(मसर्रत =ख़ुशी ,शामत =मृत्यु ,ग़ुरबा =ग़रीबों )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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