Thursday, June 4, 2015

165 : ग़ज़ल - ज़िंदगी तेरे बिना भी


ज़िंदगी तेरे बिना भी जान चलती ही रही ॥
हाँ कमी बेशक़ तेरी हर आन खलती ही रही ॥
चाहकर भी मैं नहीं तेरे मुताबिक़ बन सका ,
तू मेरे साँचे में अनचाहे ही ढलती ही रही ॥
होके पानी भी मैं तुझको बर्फ़ सा जमता रहा ,
और तू मेरे लिए लोहा भी हो गलती रही ॥
हाथ आते-आते तू जो हाथ से फिसली मेरे ,
ज़िंदगी फिर ज़िंदगी भर हाथ मलती ही रही ॥
मेरी ख़ातिर जो तेरा दिल बस बुझाए ही रहा ,
उम्र भर वो शम्ए उल्फ़त मुझमें जलती ही रही ॥
दिल में जिस दिन से मेरे पैदा हुई हसरत तेरी ,
मारता जितना रहा ये उतना पलती ही रही ॥
ख़ुद को घिस-घिस कर मैं नन्हें दीप सा जब से जला ,
तब से सब दुनिया बुझाने मुझको झलती ही रही ॥
इक दफ़ा भी तो न ग़म घर से हुए मेरे दफ़ा ,
हर ख़ुशी हर बार बिन टाले ही टलती ही रही ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (06-06-2015) को "विश्व पर्यावरण दिवस" (चर्चा अंक-1998) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
विश्व पर्यावरण दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! मयंक जी !

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