आख़री क्या सोचकर पहला लिखा जी ॥
उनका
इक्का किसलिए दहला लिखा जी॥
जिसको
जग कहता न थकता वाटिका है ,
तुमने उसको ख़ाली इक गमला लिखा जी ॥
पाक
था , उजला था , एकदम साफ़ था वो ,
फिर
भी तुमने उसको धुर मैला लिखा जी ॥
वाँ
सभी लोगों के सिर बिन बालों के थे ,
तुमने
कुछ को ही मगर टकला लिखा जी॥
अपना
घर हरिद्वार , काशी , द्वारका और ,
ग़ैर के मंदिर को भी चकला लिखा जी ॥
तुमने
रिश्वत के लिए तारीख़ में क्यों ,
झूठे
को हरिचंद का पुतला लिखा जी ॥
झूठ
है या आधा सच है सूर को क्यों ,
तुमने
काना , गूँगे को हकला लिखा जी ॥
घर
से वो भागा तुम्हारे ज़ुल्म से पर ,
तुमने
मर्ज़ी से उसे निकला लिखा जी ॥
मुंसिफ़ाना
और मुनासिब अपने सारे ,
दूसरों
का हर क़दम घपला लिखा जी॥
जब
समझ आई न उसकी बात तो फिर ,
तुमने
दानिशमंद को पगला लिखा जी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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