मचलती-उथली ये मेरी डुबोने ताड़ सी हस्ती ।।
विकट तूफाँ उठाती है ये अदना नहर सी बस्ती ।।
विकट तूफाँ उठाती है ये अदना नहर सी बस्ती ।।
उसे मालूम क्या मैंने भी अबके कस के ठानी है ,
लगाकर ही रहूँगा पार अपने इश्क़ की क़श्ती ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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