Sunday, February 3, 2013

कविता : पेड़ का वध

  भले ही वन-विभाग की /
  विधिवत मंजूरी लेकर /
  तात्कालिक अथवा दूरगामी /
  सुनिश्चित लाभ के मद्देनजर ,
  सुनियोजित अकाट्य तर्कों की छाया में /
  सरेआम बेरहमी से _
  आरों अथवा कुल्हाड़ों से /
  कांक्रीट जंगल के नवनिर्माण में /
  बाधा बन रहे /
  एक वर्षों पुराने -
  हरे-भरे बेशकीमती इमारती वृक्ष की ;
  आकाश में उड़ती हुई चिड़िया के /
  किसी शिकारी की गोली खाकर /
  धरती पर फड़फड़ाते हुए गिरने के समान नहीं _
  बल्कि _
  किसी बच्चे द्वारा /
  आकाश में फ़ेंके गए /
  एक निर्जीव पत्थर के समान ,
  मुझे उस मरते हुए जीवित पेड़ का
  चुपचाप पटाक से गिर जाना _
  रुलाता नहीं ,
  बल्कि भर देता है उसके प्रति क्रोध से ,
  जब
  पकाकर खाये जाने के लिए /
  एक अदना सी मुर्गी भी /
  काटे जाते वक्त /
  अपने को मारे जाने का /
  फड़फड़ाकर _
  पुरजोर विरोध करती है ,
  अथवा चीखकर अपनी पीड़ा प्रकट करती है /
  फलस्वरूप _
  कभी कभार _
  छूटकर भाग भी जाती है /
  अथवा बिरले ही सही _
  वधिक उसको दयार्द्र होकर बख़्श देता है ;
  फिर इतना विशाल पेड़ क्यों नहीं चीत्कार करता /
  बचाओ बचाओ चिल्लाता /
  और कुछ नहीं तो काटने वालों पर ही गिर जाता ?
  क्यों चुप रहता है ?
  क्यों चुपचाप सहता है ?
  क्या यही उसके पतन का एकमेव कारण है ?
  -डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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