अब अपनी मोहब्बत का बताएँ क्या फ़साना ?
तनहा ही गुज़ारा है
जवानी का ज़माना ॥
मालूम थे इक-तरफ़ा
मोहब्बत के हमें ग़म ,
मर्ज़ी से नहीं फिर भी पड़े तो थे उठाना ॥
इस सारे ज़माने में वही एक नहीं थे ,
चाहा न मगर दिल ने
किसी और पे आना ॥
इस बार क्या , उस बार
क्या , हर बार उसी से ,
खाये थे बहुत धोख़े ये
दिल फिर भी न माना ॥
दो शम्अ को तोहमत न जलाने की शरारों ,
क्या तुमको नहीं भाये
है ख़ुद को ही जलाना ?
महबूब की ताउम्र रही चाह अधूरी ,
यूँ रोज़ ही कितनों से
हुआ मिलना-मिलाना ?
क़ाबिल तो न थे प्यार
जिसे करते थे उसके ,
पर ख़ुद को चकोरा औ' उसे
चाँद ही माना !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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