जब पास नहीं हैं कंत , अरे कैसा बसंत ?
हिरदै में विरह जीवंत , अरे कैसा बसंत ?
देके पहली रात ही सदमा ,
निकले ऐसे घर से बलमा ,
वो हो गए साधु सुसंत , अरे कैसा बसंत ?
ख़ुद को उनसे पूरा जोड़ा ,
इक पल उनका ध्यान न छोड़ा ,
पर सिल ही रहे भगवंत , अरे कैसा बसंत ?
होंठ सिले मुखड़ा उतरा ,
मन में ऐसा फैला -पसरा ,
दुःख -दर्द असीम -अनंत , अरे कैसा बसंत ?
फूलों की नहीं इक डाल जहाँ ,
काँटों से भरे जंजाल जहाँ ,
औ'चलना वही हो पंथ , अरे कैसा बसंत ?
बस इक दो घर हँसते गाते ,
दस बीस सिसकते चिल्लाते ,
घर घर जो नहीं आनंद , अरे कैसा बसंत ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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