Tuesday, February 5, 2013

32. ग़ज़ल : बँगला न हवेली



मैं न बँगला , न हवेली , न कोई घर ढूँढूँ ।।
सर छिपाने के लिए एक छान भर ढूँढूँ ।।1।।
जिसके हर घर में बगीचा हो एक हो आँगन ,
गाँव जैसा हो वैसा ही इक नगर ढूँढूँ ।।2।।
ना मिठाई , न दवा-दारू , ना कोई फल-वल ,
पेट की भूख जो मारे मैं वो ज़हर ढूँढूँ ।।3।।
तेंदुआ , बाघ न चीता , न कोई भी बिल्ली ,
मैं तो गब्बर ओ ज़बर शेर-ए-बबर ढूँढूँ ।।4।।
सुब्ह का , शाम का सूरज , न तो सितारे ही ,
मैं तो हर रात को , चौदहवीं का क़मर ढूँढूँ ।।5।।
जिसने तक़्लीफ़ न झेली , न ग़म उठाया हो ,
सारी दुनिया में फ़क़त ऐसा इक बशर ढूँढूँ ।।6।।
उनको गर मुझमें ख़राबी और ऐब दिखते हैं ,
मैं भी फिर उनमें इक अच्छाई इक हुनर ढूँढूँ ।।7।।
ज़िंदगानी को अता करने इक सही मा'नी ,
अपनी मंज़िल के लिए नेक रहगुज़र ढूँढूँ ।।8।।
रोज़ मिलती है बुरी रोने की , रुलाने की ,
इक ज़माने से ज़रा सी मैं ख़ुश-ख़बर ढूँढूँ ।।9।।
  ( छान = छप्पर , क़मर =चाँद , बशर =आदमी  )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति    
  

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...