सर को उठा न ऐसे आश्कार होइए ।।
करके
गुनाह कुछ तो शर्मसार होइए ।।
बेकार सी न बनके क़ब्र घेरिये जगह ,
होना है गर तो ताज सी मजार होइए ।।
हालात के हिसाब से कहीं-कहीं कभी ,
रखकर क़लम को जेब में कटार होइए ।।
अड़ जाए एन वक़्त पे या फिर पटक ही दे ,
घोड़े पे इस तरह से मत सवार होइए ।।
दो के अगर न चार हो बनाने का हुनर ,
मरियेगा भूख से न क़र्ज़दार होइए ।।
कब तक नदी के सूखने की देखिएगा रह ,
पुल ,नाव कुछ नहीं तो तैर पार होइए ।।
बेकार सी न बनके क़ब्र घेरिये जगह ,
होना है गर तो ताज सी मजार होइए ।।
हालात के हिसाब से कहीं-कहीं कभी ,
रखकर क़लम को जेब में कटार होइए ।।
अड़ जाए एन वक़्त पे या फिर पटक ही दे ,
घोड़े पे इस तरह से मत सवार होइए ।।
दो के अगर न चार हो बनाने का हुनर ,
मरियेगा भूख से न क़र्ज़दार होइए ।।
कब तक नदी के सूखने की देखिएगा रह ,
पुल ,नाव कुछ नहीं तो तैर पार होइए ।।
(आश्कार = प्रकट , रह = राह , मार्ग )
-डॉ.
हीरालाल प्रजापति
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