Monday, February 4, 2013

28. ग़ज़ल : सर को उठा



सर को उठा न ऐसे आश्कार होइए ।।
करके गुनाह कुछ तो शर्मसार होइए ।।
बेकार सी न बनके क़ब्र घेरिये जगह ,
होना  है गर तो ताज सी मजार होइए ।।
हालात के हिसाब से कहीं-कहीं कभी ,
रखकर क़लम को जेब में कटार होइए ।।
अड़ जाए एन वक़्त पे या फिर पटक ही दे ,
घोड़े पे इस तरह से मत सवार होइए ।।
दो के अगर न चार हो बनाने का हुनर ,
मरियेगा भूख से न क़र्ज़दार होइए ।।
कब तक नदी के सूखने की देखिएगा रह ,
पुल ,नाव कुछ नहीं तो तैर पार होइए ।।
 (आश्कार = प्रकट , रह = राह , मार्ग )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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