Tuesday, February 5, 2013

30. ग़ज़ल : बहरे को ज्यों..........


बहरे को ज्यों सितार की झंकार व्यर्थ है ।।
अंधे पिया के सामने सिंगार व्यर्थ है ।।
यौवन में ब्रह्मचर्य का पालन सरल नहीं ,
परिणय का भर बुढ़ौती में कुविचार व्यर्थ है ।।
जपता जो रात-दिन फिरे बस ब्रह्म सत्य को ,
घर-बार ही नहीं उसे संसार व्यर्थ है ।।
जो पक चुका हो अग्नि में उस घट को गालने ,
जल में उसे डुबो के रखना तार व्यर्थ है ।।
जब तक नहीं पिटेगी ये चुप ही रहेगी सच ,
ढोलक पे उँगलियों की फेराफार  है ।।
संतान के लिए या हो कारण कुछ और पर ,
कुंती के साथ पाण्डु का अभिसार व्यर्थ है ।।
( परिणय = विवाह ; तार = निरंतर , लगातार  ,अभिसार = प्रणय )

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...