बहरे को ज्यों सितार की झंकार व्यर्थ है ।।
अंधे पिया के सामने सिंगार व्यर्थ है ।।
यौवन में ब्रह्मचर्य का पालन सरल नहीं ,
परिणय का भर बुढ़ौती में कुविचार व्यर्थ है ।।
जपता जो रात-दिन फिरे बस ब्रह्म सत्य को ,
घर-बार ही नहीं उसे संसार व्यर्थ है ।।
जो पक चुका हो अग्नि में उस घट को गालने ,
जल में उसे डुबो के रखना तार व्यर्थ है ।।
जब तक नहीं पिटेगी ये चुप ही रहेगी सच ,
ढोलक पे उँगलियों की फेराफार है ।।
संतान के लिए या हो कारण कुछ और पर ,
संतान के लिए या हो कारण कुछ और पर ,
कुंती के साथ पाण्डु का अभिसार व्यर्थ है ।।
( परिणय = विवाह ; तार = निरंतर , लगातार ,अभिसार = प्रणय )
( परिणय = विवाह ; तार = निरंतर , लगातार ,अभिसार = प्रणय )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
1 comment:
धन्यवाद ! mohit punpher जी !
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