वो जवाहर , वो सीमोज़र , वो पाक लगते हैं ।।
उनके हम आगे लोह , संग , ख़ाक लगते हैं ।।
वो अमलतास , अशोक , देवदार वो पीपल ,
हम तो महुआ , बबूल , बेर , ढाक लगते हैं ।।
वो बहुत रोबदार , ख़ूब-ख़ास दिखने में ,
हम न तो बाअसर , न ठीक-ठाक लगते हैं ।।
वो महकते हुए गुलाबी , संदली पौडर ,
हम सड़क-धूल , बाजरे की राख लगते हैं ।।
गिन्नी-दीनार वो लिरा , वो पौण्ड-डॉलर भी ,
हम तो कौड़ी की एक फूटी आँख लगते हैं ।।
हम नहीं एक टन से एक रत्ती कम लेकिन ,
उनके बरअक्स सच किलो-छटाँक लगते हैं ।।
बस समझते हैं वो ही हमको पोला सरकण्डा ,
बाक़ी दुनिया को हम भरी सलाख लगते हैं ।।
बाक़ी दुनिया को हम भरी सलाख लगते हैं ।।
कृष्ण छिगुनी पे ही उठाएँ पूरा गोवर्धन ,
राम के आगे क्या कहीं पिनाक लगते हैं ?
इतना उजला है उनका रंग इतना उजला है ,
हंस , बगुले भी उनके आगे काक लगते हैं ।।
जितने लगते हसीन , भोले वो ख़ुशी के दम ,
उससे ख़फ़गी में उतने खौफ़नाक लगते हैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
4 comments:
bahot shandar hai hiralal ji.
आपका बहुत बहुत धन्यवाद !
बहुत सुन्दर लिखा है, बधाई
धन्यवाद ! राम किशोर उपाध्याय जी !
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