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Thursday, February 28, 2013
Wednesday, February 27, 2013
मुक्तक :79 - उम्र भर इश्क़
उम्र भर इश्क़ लगा सख़्त नागवार मुझे ।।
क़ौमे आशिक़ से ही जैसे थी कोई खार मुझे ।।
कितना अहमक़ हूँ या बदक़िस्मती है ये मेरी ,
वक़्ते रुख़्सत हुआ है इक हसीं से प्यार मुझे ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
57 : ग़ज़ल - हर सिम्त जुल्मो
हर इक सिम्त ज़ुल्मो सितम
हो रहा है ॥
जिसे देखो गरमा गरम हो
रहा है ॥
ख़ुदा मानकर पूजता हूँ
जिसे मैं ,
वो पत्थर न मुझ पर नरम
हो रहा है ॥
शगल जिसका कल तक था मुझको
हँसाना ,
अब उसके ही हाथों सितम
हो रहा है ॥
बहुत ख़ुश था शादी के पहले
जो मुझसे ,
वो नाराज़ हरदम सनम हो
रहा है ॥
कमाते थे बाहर तरसते थे
घर को ,
निठल्ले हैं घर पर तो
ग़म हो रहा है ॥
जो है आजकल मुझसे बर्ताव
उसका ,
वो अब भी है मेरा वहम
हो रहा है ॥
यकीं था कि वो नाम रोशन
करेगा ,
वो छूई-मुई बेशरम
हो रहा है ॥
मेरी ज़िंदगी में असर उसका
पूछो ,
था पहले बियर अब वो रम
हो रहा है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Tuesday, February 26, 2013
मुक्तक : 78 - कुछ को ऊँची
कुछ को ऊँची सी अटारी पे खड़ा लगता हूँ ।।
कुछ को इस शह्र के गटर में पड़ा लगता हूँ ।।
कुछ सघन सब्ज़-ओ-सायादार मुझे कहते
हैं ,
कुछ को सूखा, विरल व पत्रझड़ा लगता हूँ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
मुक्तक : 77 - फ़क़ीरी में जो ख़ुश
फ़क़ीरी में जो ख़ुश मत उसको
धन-दौलत अता करना ॥
मोहब्बत के तलबगारों को
मत नफ़्रत करना ॥
ख़ुदा क्या किसको लाज़िम
है बख़ूबी जानता है तू ,
लिहाज़ा माँगने की मत मुझे
नौबत अता करना ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
कविता :देखकर तुझको मेरे..........
देखकर तुझको मेरे दिल में ख़याल आए यही /
तू है जितनी खूबसूरत स्वर्ग में भी तो नहीं /
क्यों दिखाकर अपना जलवा लूटती फिरती हो दिल /
ढाँक कर चेहरा ही रक्खो तो भी हों कुछ कम क़तल /
मुक्तक : 76 - दिन रात ख़्यालों
दिन रात ख़यालों में सफर ठीक नहीं है ।।
हर वक्त उदासी का जहर ठीक नहीं है ।।
कह दो उसे जो दिल में है दुनिया जहान से ,
घुट-घुट के ज़िंदगी का बसर ठीक नहीं है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
56 : ग़ज़ल - मुझको जीने की
मुझको जीने की मत दुआ दो
तुम ॥
हो सके दर्द की दवा दो तुम
॥
क्यों हुआ ज़ुर्म मुझसे मत
सोचो ,
जो मुक़र्रर है वो सज़ा दो
तुम ॥
मुझको हमदर्द मानते हो तो ,
अपने सर की हर इक बला दो
तुम ॥
मैं तो तुमको बुला-बुला हारा ,
कम से कम अब तो इक सदा दो
तुम ॥
यूँ न फूँको कि बस धुआँ निकले
,
ख़ाक कर दो या फिर बुझा दो
तुम ॥
रखना क़ुर्बाँ वतन पे धन दौलत
,
गर ज़रूरत हो सर कटा दो तुम
॥
वो जो इंसाँँ बनाते हैं उनको ,
कुछ तो इंसानियत सिखा दो तुम
॥
फँस गया हूँ मैं जानते हो गर ,
बच निकलने की रह बता दो तुम
॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Monday, February 25, 2013
मुक्तक : 75 - जिसको बूंद अनावश्यक
जिसको बूँँद अनावश्यक उसको सुरसरिता लिखता है ।।
गद्य नहीं जाने जो उसको भी तब कविता लिखता है ।।
भाग्यविधाता जब अपनी धुन में संपूर्ण अवस्थित हो ,
ब्रह्मचर्य व्रतधारी को पग-पग पर वनिता लिखता है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Sunday, February 24, 2013
मुक्तक : 74 - जहां रोना फफक
जहाँ
रोना फफक कर हो वहाँ
दो अश्क़ टपकाऊँ ॥
ठहाका मारने के बदले बस डेढ़ इंच मुस्काऊँ ॥
दिमागो दिल पे तारी है किफ़ायत का जुनून इतना ,
जो कम सुनते हैं उनसे भी मैं धीमे-धीमे बतियाऊँ ॥ -डॉ. हीरालाल प्रजापति
मुक्तक : 73 - आँखों को जो
आँखों को सुकूँ दे जो वही दीद , दीद है ।।
चंदन का बुरादा भी दिखे वर्ना लीद है ।।
जिस ईद मिले ग़म है वो त्योहार
मोहर्रम ,
जिस क़त्ल की रात आए ख़ुशी अपनी ईद है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, February 23, 2013
मुक्तक : 68 - उसने जब माँगा
उसने जब माँगा मकाँ मैंने उसे इक घर दिया ॥
उसको कब तक्लीफ़ दी ख़ुद उसके घर जाकर दिया
॥
एक दिन मुझको ज़रूरत पड़ गई थी टाँग की ,
उसने भी लाकर मुझे इक ख़ूबसूरत पर दिया
॥
-डॉ.
हीरालाल प्रजापति मुक्तक : 67 - सामान यक़ीनन
सामान यक़ीनन कुछ कम दाम का
निकलेगा ॥
लेकिन कबाड़ में भी कुछ काम
का निकलेगा ॥
तलवार शिवाजी की, टीपू की न मिले पर ,
चाकू, छुरी, सुई, पिन हर आम का निकलेगा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
55 : ग़ज़ल - हाँ ! मुझसे बेपनाह मोहब्बत
हाँँ ! मुझसे बेपनाह मोहब्बत न करो तुम ।।
लेकिन ख़ुदा के वास्ते नफ़्रत न करो तुम ।।1।।
यों दुश्मनी निभाओ लड़ो , काट दो गर्दन ,
बस दिल को मेरे बारहा आहत न करो तुम ।।2।।
ख़िदमत में मेरी जान भी हाज़िर
है , कभी भी
ईमान और दीन की चाहत न करो तुम ।।3।।
ईमान और दीन की चाहत न करो तुम ।।3।।
सच ख़ूब क़हर ढाओ कि ख़ुद्दार हूँ मुझ पर ,
एहसान की तो भूल के जुरअत न करो तुम ।।4।।
एहसान की तो भूल के जुरअत न करो तुम ।।4।।
बस इतनी मेहरबानी करो मुझपे क़सम से ,
इतनी सी भी मेरे लिए ज़हमत
न करो तुम ।।5।।
हूँ रीछ ज़ात मेरे घने बाल हैं लेकिन ,
हूँ रीछ ज़ात मेरे घने बाल हैं लेकिन ,
भेड़ों के बदले मेरी हज़ामत
न करो तुम ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Friday, February 22, 2013
मुक्तक : 66 - देखने में सभ्य
देखने में सभ्य अंदर जंगली है आदमी ॥
शेर चीते से ख़तरनाक और बली है आदमी ॥
जानवर प्रकृति का अपनी पूर्ण अनुपालन करें ,
अपने मन मस्तिष्क के कारण छली है आदमी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
54 : ग़ज़ल - बहुत चाहत है
बहुत चाहत
है वो बोलूँ , मगर जो कहना मुश्किल है ।।
है जिनसे बोलना उनका , भी उसको सुनना मुश्किल है ।।1।।
मुझे करना है इज़्हारे , तमन्ना अपने दुश्मन से ,
है जिनसे बोलना उनका , भी उसको सुनना मुश्किल है ।।1।।
मुझे करना है इज़्हारे , तमन्ना अपने दुश्मन से ,
ज़ुबाँ खुलती
नहीं और बिन , कहे भी रहना मुश्किल है ।।2।।
हैं माहिर
लोग ग़ैरों को , भी सब अपना बनाने में ,
यहाँ अपनों
को भी अपना , बनाए रखना मुश्किल है ।।3।।
कहाँ होती
हैं दुनिया में , सभी की ख़्वाहिशें पूरी ,
अधूरे ख़्वाब
ले फिर ज़िंदगी जी सकना मुश्किल है ।।4।।
न कर नाहक़
लतीफ़ागोई मैं ग़मगीन हूँ इतना ,
हँसी की बात
पर भी आज मेरा हँसना मुश्किल है ।।5।।
करो करते रहो
मुझ पर , जफ़ा जी भर इजाज़त है ,
सितम तो जब
कोई अपना , करे तब सहना मुश्किल है ।।6।।
चपत दिखलाएगा
दुश्मन , तो मैं तो लात जड़ दूँगा ,
मेरा इस दौर
में गाँधी , सरीखा बनना मुश्किल है ।।7।।
बहुत आसान
है देना , सलाहें वो भी बिन माँगे ,
मगर हालात
के मारों , का उन पर चलना मुश्किल है ।।8।।
अगर जाना है
रेगिस्तान फ़ौरन ऊँट बन जाओ ,
वहाँ मेंढक
या मछली का , क़दम भर चलना मुश्किल है ।।9।।
( लतीफ़ागोई = चुटकुला सुनाना )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
53 : ग़ज़ल - मुद्दत से बंद अपना मुँह
मुद्दत से बंद अपना , मुँह खोल मैं रहा हूँ ।।
हर लफ़्ज़ अब क़सम से , सच बोल मैं रहा हूँ ।।1।।
उनके भले की ख़ातिर , बेशक़ दग़ा है लेकिन ,
खोल अपने दोस्त की ही , अब पोल मैं रहा हूँ ।।2।।
मुझमें कोई कहाँ है , कब लोग जान पाए ?
कंचे सा जो हमेशा , ही गोल मैं रहा हूँ ।।3।।
जिनकी निगाह में अब , क़ीमत
रही न अपनी ,
कल तक जहाँ में सबसे , अनमोल मैं रहा हूँ ।।4।।
इक रोज़ में तुम उसका , लेने को राज़ आए ,
जिसको न जाने कब से , नित टोल मैं रहा हूँ ।।5।।
जिसको न जाने कब से , नित टोल मैं रहा हूँ ।।5।।
चाहत के कुछ मुताबिक़ , इसमें न कोई डाले ,
दरवेश का जो ख़ाली , कजकोल मैं रहा हूँ ।।6।।
वादा तेरी मदद का , भूला
नहीं हूँ लेकिन ,
हालात हैं कुछ ऐसे , सो डोल मैं रहा हूँ ।।7।।
सस्ते में बेचकर भी , होता नहीं है नुक़्साँ ,
सौदा हर इक शुरू से , कम तोल मैं रहा हूँ ।।8।।
सौदा हर इक शुरू से , कम तोल मैं रहा हूँ ।।8।।
( टोल = टटोल , कजकोल=भिक्षा पात्र )
- डॉ. हीरालाल प्रजापति
Thursday, February 21, 2013
मुक्तक : 65 - काट लो मेरी गर्दन
काट लो मेरी गर्दन को तलवार से ।।
कर लो जी भर ग़ुसुल ख़ून की धार से ।।
जो भी करना है खुलकर करो हाँ मगर ,
नाजुकी से बहुत और बड़े प्यार से ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
52 : ग़ज़ल - मैं तमन्नाई हूँ
मैं तमन्नाई हूँ कि मुझको लोरियाँ मिलतीं ।।
नींद आए न नींद वाली गोलियाँ मिलतीं ।।1।।
जिसको देखो वो तुर्श होके बात करता है ,
क्यों नहीं कोयलों सी सबमें बोलियाँ मिलतीं ।।2।।
सिर्फ़ चाहत है लाल-लाल बेरियों की पर ,
मुझको कच्ची हरी-हरी निबोलियाँ मिलतीं ।।3।।
लोग पिल्लों को पालते बड़ी मोहब्बत से ,
काश लवारिसों को ऐसी गोदियाँ मिलतीं ।।4।।
इश्क़ करने को तो मिलें ज़रा सी कोशिश में ,
ब्याह बेकार से न करने गोरियाँ मिलतीं ।।5।।
मुफ़्लिसों को चबाने बासी रोटियाँ मुश्किल ,
पाले कुत्तों को ताज़ा गोश्त-बोटियाँ मिलतीं ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
नींद आए न नींद वाली गोलियाँ मिलतीं ।।1।।
जिसको देखो वो तुर्श होके बात करता है ,
क्यों नहीं कोयलों सी सबमें बोलियाँ मिलतीं ।।2।।
सिर्फ़ चाहत है लाल-लाल बेरियों की पर ,
मुझको कच्ची हरी-हरी निबोलियाँ मिलतीं ।।3।।
लोग पिल्लों को पालते बड़ी मोहब्बत से ,
काश लवारिसों को ऐसी गोदियाँ मिलतीं ।।4।।
इश्क़ करने को तो मिलें ज़रा सी कोशिश में ,
ब्याह बेकार से न करने गोरियाँ मिलतीं ।।5।।
मुफ़्लिसों को चबाने बासी रोटियाँ मुश्किल ,
पाले कुत्तों को ताज़ा गोश्त-बोटियाँ मिलतीं ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
मुक्तक : 64 - पहना दी उसने
पहना दी उसने महँगी , उँगली में इक अँगूठी ॥
मैंने लगा ली उससे , शादी की आस झूठी ॥
सब कर दिया समर्पित , बदले में उसको अपना ,
इक छल में ज़िन्दगानी , की डोर चट से टूटी ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
51 : ग़ज़ल - अजब नासेह है पर काटकर
अजब नासेह है पर काटकर कहता है उड़ने को ।।
निगाहें फोड़कर बोले सितारे तकने-गिनने को ।।
मुझे तालीम देने फ़त्ह की उस्ताद मुझसे सब ,
छुड़ा हथियार भेजे अपने धुर दुश्मन से लड़ने को ।।
मुझे तालीम देने फ़त्ह की उस्ताद मुझसे सब ,
छुड़ा हथियार भेजे अपने धुर दुश्मन से लड़ने को ।।
ज़माने भर से बतियाता है बेहद प्यार से , मुझसे ,
बिना के बिन लड़ा करता है बढ़ता है झगड़ने को ।।
फ़क़त उँगली थमाने से न उसका काम चलता है ,
वो हो जाता है फिर पहुँचा कभी गर्दन पकड़ने को ।।
नशे में धुत्त तब भी होश की ही बात करता है ,
बुरा कहता है पीने और फिर पीकर बहकने को ।।
बहुत मौक़ा हमें अपनी सुनाने का वो दे आकर ,
कि जब तक खोलते हैं लब वो हो जाता है चलने को ।।
वो जानी दोस्त मेरा दुश्मने जाँ ही तो बन जाता ,
जो बोलूँ उससे यों ही भी ज़रा सा इश्क़ करने को ।।
समझना मत उसे फैशन की फ़र्माइश बदन ढँकने ,
फटेहालों ने माँगीं हैं जो कुछ उतरन पहनने को ।।
ख़ुद अपने झाँककर देखें गिरेबाँ में जो औरों से ,
हो मौक़ा या न हो कहते मगर रहते सुधरने को ॥
(नासेह =उपदेशक ,बिना =आधार ,पहुँँचा =कलाई )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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