है राह उजाले की क्या इसके
सिवा कोई ?
मत कोस अँधेरे को जला ले
दिया कोई ॥
मंज़िल की तरफ़ पूरी लगन से तू चल चला ,
इकलव्य का होता न कहीं रहनुमा
कोई ॥
ख़ुश रह के ही हो सकती है
बस ज़िंदगी दराज़ ,
रो-रो के न दुनिया में ज़ियादा
जिया कोई ॥
हर फर्ज़ निभा क़र्ज़ चुका फ़िर
जहाँ से उठ ,
लौटे न जो इक बार यहाँ से
गया कोई ॥
माना कि ग़रीबों को भी मिलते दफ़ीने सच ,
होता न मगर रोज़ यही वाक़या
कोई ॥
तुझको भी मोहब्बत का जो लग रोग है गया ,
तो उम्र की है ये नहीं तेरी ख़ता कोई ॥
राहों पे मुनासिब है कि आराम मत करो ,
मंज़िल पे मगर आ के भी चलता
भला कोई ?
लंबी सी ख़तरनाक सी सुनसान सच की इक ,
चल के दो क़दम राह से वापस
चला कोई ॥
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
2 comments:
बहुत सुन्दर!
धन्यवाद ! Brijesh Singh जी !
Post a Comment