Thursday, January 31, 2013

कविता : मौत का वक़्त..............


जब हम हँस रहे हों 
किन्तु 
फूहड़ कामेडी देखकर 
अथवा 
भद्दा चुटकुला सुनकर नहीं 
बल्कि हम खुश हों 
संतुष्ट  हों यह जानकर 
अथवा समझकर 
भले ही वह झूठ हो कि 
हमने पूरे कर लिए हैं वे कर्तव्य 
निभा डाली हैं वे सारी जिम्मेदारियां 
जो हमारी अपने बड़े बूढों के प्रति थीं 
बच्चों के प्रति थीं 
देश दुनिया समाज के प्रति थीं 
और जब हम अपना सम्पूर्ण दोहन करा चुके हों 
हमारे रहने न रहने से 
किसी को कोई फर्क पड़ना शेष न रह गया हो 
हमारी उपयोगिता समाप्त हो चुकी हो 
यद्यपि हम अभी उम्र में जवान हों 
पूर्णतः स्वस्थ हों और हों निस्संदेह दीर्घायु 
आगे जीना सिर्फ सुखोपभोग के लिए रह गया हो शेष 
तथापि एन इसी वक़्त 
किसी डूबते को बचाते हुए 
किसी के द्वारा किसी को चलाई गई गोली 
धोखे से अपने सीने में घुस जाते हुए 
या सांप से डस लिए जाने से 
या हृदयाघात से 
और नहीं तो 
स्वयं ही फंदे पर झूल जाकर 
अपने जीवन का अंत हो जाना 
अपनी मृत्यु का सौन्दर्यीकरण होगा 
मैं यह बिलकुल नहीं कहता कि 
हमारी मृत्यु को लोग 
महात्मा गांधी का क़त्ल समझें 
या रानी लक्ष्मीबाई की आत्मह्त्या या 
भगत सिंह,  खुदीराम, चन्द्र शेखर आज़ाद की 
कुर्बानी समझ कर 
कारुणिक चीत्कार  अथवा मूक रुदन करें 
किन्तु अवश्यम्भावी 
विशेषतः तवील वक़्त से चली आ रही 
घोषित असाध्य बीमारी 
जो अपने तीमारदारों को भी 
हमारी शीघ्र मुक्ति (मृत्यु) कामना को 
मजबूर करती है 
ऐसी मृत्यु 
चाहे कार्यरत प्रधानमंत्री 
राष्ट्रपति या जनप्रिय अभिनेता अभिनेत्री 
या अन्य किसी अच्छे -बुरे व्यक्ति की हो 
मृत्यु का वीभत्स नज़ारा है 
कितु चाहने से क्या होता है कि
मौत हो तो अनायास हो 
कटी टांग का घोडा गोली खाकर ही कीर्ति को प्राप्त होता है I 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...