झुण्ड में बकरियों
के
नौजवान इक बक़रा ,
गोपिकाओं में
सचमुच
कृष्ण सा दिखाई दे ;
जबकि भरे यौवन में
तरसता अकेला हूँ ;
किन्तु क़सम बक़रे
की
लोभ नहीं मैथुन का ,
मेरी नज़र में तो
बस
उसका कसाई के घर ,
काटने से पहले तक
पुत्र सा पाला
जाना है ।
मरने से पहले उसको
हर
वो ख़ुशी मयस्सर
है
जो कि गरीब इन्सां
को
ख्वाब में भी
दुष्कर है ।
दो जून की रोटी को
दिन रात काम करता
है ,
फिर भी इतना मिलता
है
कि पेट नहीं भरता है ;
और अगर मरता है
तो खाली पेट मरता है ।
बक़रा बेफ़िक्र ,
भरे पेट कटा करता
है ;
अपने गोश्त से
कितने
पेट भरा करता है ।
हम तो न पाल पाते
हैं ;
और न पले जाते हैं ;
क्यों वयस्क (
बालिग )होते हैं
बेरोज़गार दुनिया
में ?
सिर्फ़ पेट की
चिंता में ही प्राण खोते हैं ।
बक़रे नहीं मरा
करते
वे तो क़ुर्बान
होते हैं ;
जो क़ुर्बान होते
हैं
वे महान होते हैं ।
मुझको बक़रा बनना
है
जन्म अगर हो अगला I
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
5 comments:
shandar rachna hai aapki
गौरव दीक्षित जी बहुत बहुत धन्यवाद ।
Dhanyavad!
स्वागत ! jugal singh जी !
ohho............................................!!!!!!!!
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