Sunday, January 20, 2013

13. ग़ज़ल : तलब में दोस्ती की



तलब में दोस्ती की दुश्मनों में जा पहुँचे।।
चले थे मस्ज़िदों को मैकदों में जा पहुँचे।।1।।
उड़ा के रख दिया सभी शराब ख़ोरी में ,
हवेलियों से तंग झोपड़ों में जा पहुँचे।।2।।
यही लगा कि होटलोंं में ठहरे सैलानी ,
तमाम 'स्वर्ग' नाम के घरों में जा पहुँचे।।3।।
लजाते जोंक चाल को भी काम में अफ़सर ,
जो भूले शासकीय दफ़्तरों में जा पहुँचे।।4।।
नहीं थे झूठ जो लगे थे उनपे इल्ज़ामात ,
परखने को चुनिंदा जब बड़ों में जा पहुँचे।।5।।
हुए जो रह के दूर वाक़िआत आपस में ,
तलाक़ भूल फिर से बिस्तरों में जा पहुँचे।।6।।
मिला न काम जब हमें किसी महक़मे में ,
तो हार नौकरी को तस्करों में जा पहुँचे।।7।।
    - डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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