Friday, January 25, 2013

कविता :चित्रकला जीविका के लिए


जितनी भी होती हैं 
एक दो तीन चार या दस 
बल्कि ऊपर और नीचे भी 
सभी दिशाओं के 
रंगे पुते गुदे पड़े हैं 
लगभग लगभग ऐसे ही परिदृश्यों से 
तूलिका रंग और कैनवास 
ऐसे दृश्यों की 
बारंबारता के 
कदापि नहीं हैं गुनाहगार 
बल्कि है तो वह चित्रकार 
जो 
कला के लिए नहीं 
मनोरंजन के लिए नहीं 
जीवन के लिए नहीं 
पलायन के लिए नहीं 
आत्म साक्षात्कार के लिए नहीं
सेवा के लिए नहीं 
बल्कि अपनी कला को 
प्रदर्शित करता है आजीविका के लिए 
बखूबी ये जानकर कि
कला बेची नहीं जाती 
बेचता है भरण पोषण के लिए 
हाथ कंगन को आरसी क्या 
बाजारवाद के इस युग में 
वही तो खरीदा जायेगा 
जिसे हम खरीदने के लिए 
देखते हुए 
यह भी देखते हैं 
कि कोई यह देखते हुए 
हमें देखता तो नहीं 
यानि वह चित्र जो 
खंडित करता है 
हमारे ब्रह्मचर्य को 
और जब सपरिवार भूखा चित्रकार 
ऐसे तथाकथित चित्र  प्रेमियों को 
अपनी चित्रकला  
बेचता है ऊंचे दामों में 
तब हो जाता है गुनाहगार ....
खरीदार 
जब सच्चे चित्रकार भूखे मरते हैं 
आवरण युक्त चित्र पड़े पड़े सड़ते हैं 
नंगे धड़ा-धड़ बिकते हैं 
तब होता है गुनाहगार ....
......................समाज 
 -डॉ. हीरालाल प्रजापति

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