आँखों को उसका अक़्स इस क़दर खटक गया ।।
आईना ख़ुद ब ख़ुद पटाक से चटक गया ।।
दाँँतों से था पकड़
रखा मगर जहेनसीब ,
मुट्ठी से वक़्त
रेत की तरह सटक गया ।।
ओलों सा आस्माँँ से वो टपक तो था रहा ,
चमगादड़ों सा फिर
खजूर पर लटक गया ।।
तेरे लिए तो दौड़ा था हिरन सा मीलों मील ,
अपने लिए वो चार डग ही चलके थक गया ।।
ग़द्दार वो नहीं था फ़र्ज़े रहनुमाई में ,
सबको ही ठीक राह जो दिखा भटक गया ।।
सूराख़ वो न जाने कौन सा था जिससे बस ,
दुम ही निकल सकी तमाम तन अटक गया ।।
सूराख़ वो न जाने कौन सा था जिससे बस ,
दुम ही निकल सकी तमाम तन अटक गया ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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