तेरे होते निर्जन भी कब निर्जन होता ।।
सन्नाटों में भी भौरों सा गुंजन होता ।।1।।
तू न दिखे तो सच आँखें लगतीं बेमा'नी ,
तू जो मिले तो मन मरुथल वृन्दावन होता ।।2।।
तेरे सँग ही अपना जी भर लंच – डिनर हो ,
बिन तेरे केवल पीना या अनशन होता ।।3।।
तू राँझे को हीर सा मजनूँ को लैला सा ,
मैं अंधे के हाथ में जैसे दर्पन होता ।।4।।
तू संतान नहीं मानव की कहीं से लगती ,
तुझसी रचना का पितु स्वयं निरंजन होता ।।5।।
तुझको सचमुच छूना भी कब संभव मुझको ,
पर सपनों में नित्यालिंगन चुंबन होता ।।6।।
यों खग जी सकता है पंख बिना पर कब तक ,
उड़ने वालोंं को चलना कब शोभन होता ?7।।
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
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