कुछ नहीं सूझता कि क्या लिक्खूँ ?
पहला ख़त है डरा-डरा लिक्खूँ ॥
उसने पूछा है
हाल-ए-दिल मेरा ,
कोई बतलाए क्या
हुआ लिक्खूँ ?
हुस्न के जितने रंग होते हैं ?
उसमें बाक़ी है कौन सा लिक्खूँ ?
नाम उसका ही बस ज़ुबाँ रटती ,
क्या ख़ता हो उसे ख़ुदा लिक्खूँ ?
इक उसे पाने के सिवा मेरा ,
कोई मक़्सद न अब
रहा लिक्खूँ ?
मुझको लिखना है एक
अफ़्साना ,
क्यूँ न अपना ही वाक़िआ लिक्खूँ ?
उसपे मरता हूँ
उसपे मरता हूँ ,
एक ही जुम्ला हर दफ़्आ लिक्खूँ ?
( वाक़िआ = वृत्तांत ; जुम्ला = वाक्य )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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