किसी बात का कब
बुरा मानता हूँ ।।
तुझे तो मैं अपना ख़ुदा मानता हूँ ।।1।।
मेरी कामयाबी का
क्या राज़ खोलूँ ,
इसे तो मैं तेरी दुआ मानता हूँ ।।2।।
मेरा तू जो चाहे
वो हँसकर उठाले ,
मेरा तो मैं सब
कुछ तेरा मानता हूँ ।।3।।
जो मैं चाहता हूँ
वो सब कुछ है तुझमें ,
तुझे अपनी ख़ातिर बना मानता हूँ ।।4।।
नया कुछ नहीं है तेरा मेरा मिलना ,
ये जन्मों का मैं
सिलसिला मानता हूँ ।।5।।
भले दूर से दूर भी तू है लेकिन ,
मैं कब ख़ुद को
तुझसे जुदा मानता हूँ ।।6।।
मिलो मत मिलो इसकी पर्वा करूँ कब ,
दिल-ओ-जाँ तुझे जब
दिया मानता हूँ ।।7।।
तेरी बेनियाज़ी को
तेरी क़सम है ,
मैं पर्वा की ही इंतिहा मानता हूँ ।।8।।
( बेनियाज़ी=उपेक्षा )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
5 comments:
बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है आपने...!
हम भी प्रजापति ही हैं मान्यवर..!
धन्यवाद ! डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी !
आप भी प्रजापति हैं जानकर खुशी हुई........डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री जी !
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