Friday, January 25, 2013

कहानी : एक बलात्कारी की आत्म-कथा



        तमाम सबूतों और गवाहों के बयानात के मद्देनज़र अब जबकि मुझे सुप्रीम कोर्ट द्वारा सज़ा-ए-मौत का फ़रमान जारी किया जा चुका है और मैं भी यह मान चुका हूँ कि राष्ट्रपति द्वारा भी मेरी माफ़ी की अपील हमेशा की तरह देर-सवेर अवश्यमेव ठुकरा ही दी जाएगी तो मैं अपनी मर्दानगी या मासूमियत दिखाने के लिए यह बिलकुल भी नहीं कहूँगा कि मुझे कोई अफ़सोस नहीं है और न यह सफ़ेद झूठ कि मैं बेगुनाह हूँ । जी हाँ मैं हूँ कुसूरवार और शत-प्रतिशत हक़दार भी इसी सज़ा का हूँ बल्कि इससे भी यदि कोई बड़ी और भयानक सज़ा होती हो तो उसका ।    .......किन्तु आज से लेकर खुद को फाँसी के फंदे पर लटकाए जाने तक मैं जो कुछ भी आत्मकथा स्वरूप लिख रहा हूँ वह किसी के भी दिल में अपने प्रति सहानुभूति जाग्रत करने अथवा पश्चात्ताप के रूप में न पढ़ा जाये और न ही माफ़ीनामा समझा जाये ......किन्तु एक बात तय है कि यह जो कुछ भी अपने अंतिम दिनों में व्यक्त करने चला हूँ आप यक़ीन जानना कि हर्फ़-दर-हर्फ़ सच है और सच के सिवा कुछ भी नहीं .....और आप ख़ुद ही सोचना कि अब आपमें करुणा जगाकर भी क्या मुझे माफ़ी मिल सकती है ; अथवा मेरी बदनामी शोहरत में बादल जाएगी ?..........नहीं न.......तो इन मोटे-मोटे लौह सीख़चों के पीछे से मेरा पूरा काला सच हाज़िर है –अपने सम्पूर्ण नग्न रूप में.......अतः गुज़ारिश भी है कि जिन्होने कभी अश्लीलता या कामवासना से नाता नहीं रखा वे इस कथा को न पढ़ें.....च्च...च्च...च्च...

लीजिए मैं तो अभी से उपदेश देने लगा जबकि माँ कसम......चलिए नहीं खाता माँ कसम क्योंकि मैं खाऊँ भी तो आप यक़ीन क्यों करने लगे...न ही हम जैसों का कभी करना…., मेरा उद्देश्य भूलकर भी उपदेश या सलाह देना हरगिज़ नहीं है.....ये और बात होगी कि मेरी इस घृणास्पद बलात्कारिक कहानी में आप स्वयं अनेकानेक सावधानियाँ ढूँढ निकालेंगे किन्तु वह आपका अन्वेषण होगा...मैं तो बस इस सकारात्मक तरीक़े से टाइम-पास कर रहा हूँ क्योंकि आत्म हत्या के औज़ार भी यहाँ उपलब्ध नहीं हैं किन्तु मौत को सामने देखकर जब तक मेरा माफ़ीनामा रद्द होकर लौटता है और मेरे फाँसी पर पूरा दम निकाल जाने तक लटकाए रक्खे जाने की तिथि मुकर्रर होती है – आत्म-मंथन कर यह जानना चाहता हूँ कि मैं गुनाहगार तो हूँ किन्तु कितना ? क्या शत-प्रतिशत.......या समाज की भी इसमें कुछ भूमिका रही है ? ख़ैर । एक बात और कि मैं यह सब बलात्कारियों का प्रतीक या प्रतिनिधि स्वरूप नहीं कह रहा बल्कि यह एक अकेले मेरा सच है , वरना आप खुद ही सोचिए कि क्या एक छोटी सी कहानी में किसी इकत्तीस वर्षीय रंगीन-मिजाज़ नौजवाँ की आत्म कथा समा सकती है..........उसके लिए चाहिए एक अति वृहद उपन्यास और जिसके लिए अनिवार्य है एक लंबा शांतिपूर्ण समय और मेरे पास तो आज मरे कल दूसरा दिन वाली बात है अतः इसमें आपको वो साहित्य-सैद्धान्तिक सिलसिला भी नहीं मिलेगा और न ही मैं साहित्य की किसी विधा का पुरोधा बनने अथवा मरणोपरांत कीर्ति अर्जन हेतु लिख रहा हूँ ......और अव्वल तो मैं लेखन क्या जानूँ.....और.......भला मौत के साये में अनिवार्य लेखकीय ध्यान लग सकता है ?

यद्यपि सज़ा तो मुझे इस एक बलात्कार और फिर हत्या की मिली है क्योंकि यह साबित हो गया किन्तु वास्तव में मैंने अपने जीवन में अनगिनती बलात्कार किए हैं ये अलग बात है कि वे मामले कभी थाने और अदालत नहीं पहुँचे अथवा ख़ारिज हो गए । आज मैं वही रहस्य बताऊँगा क्योंकि अब मुझे किसका डर...जबकि मौत खुद मैंने तहे-दिल से स्वीकार कर ली है और दो बार तो लटका नहीं सकते । सच कहूँ तो दुनिया भर में मीडिया द्वारा मेरी इतनी थू-थू और भर्त्सना हो चुकी है कि मैं ख़ुद भी माफ़ कर दिए जाने पर शायद शर्मिंदा महसूस करूँ किन्तु मौका कौन छोडता है ?

यौवन किसे नहीं आता और कामेच्छा किसमे जागृत नहीं होती किन्तु इसका नियंत्रण उच्छृंखल और लंपटों के वश की बात नहीं ...वे प्रकृति की आड़ में अप्राकृतिक दुष्कृत्य किया करते हैं जबकि घोर सामाजिक अथवा धर्मभीरु लोग आत्मनिर्भरता अथवा ब्रह्मचर्य की दम पर बलात्कारों से बचे रहते है और मुझ जैसे नास्तिक , असंयमी , और चरित्र के लिए सर्वथा घातक एकांतवासी ने प्रथम स्खलन को इस धरती का परम-चरम सुख मान लिया ...और यहीं से चालू होता है एक किशोर का बलात्कारी बनने का सफ़र ।

काश कि उस नाज़ुक उम्र में कोई यह समझाता कि नियंत्रण कैसे होता है ? किन्तु कौन ? क्या माँ-बाप ? हम उम्र नासमझ दोस्त तो और उकसाते हैं , बिगाड़ते हैं बल्कि चित्र-विचित्र तौर-तरीके सुझाते है _आनंद प्राप्ति के । मैं तो कहूँगा कि इस पर बहुत खुलकर चर्चा होनी थी । मुझे माँ-बाप द्वारा ही समझाया जाना ज्यादा उचित था अथवा स्कूल में शिक्षकों द्वारा.........जबकि वातावरण उस वक्त भी इतना प्रदूषित तो था ही कि छोटे छोटे बच्चे भी शारीरिक सम्बन्धों का अर्थ समझते थे और आज का पर्यावरण तो तौबा-तौबा बेहद भड़काऊ-उकसाऊ है इसमें कोई दो राय नहीं कि बच्चा सिद्धान्त नहीं सीधे प्रेक्टिकल में यक़ीन रखता है.........ख़ैर । और फिर यह तो नशा है , आसक्ति है , लत है । धीरे-धीरे ज़रूरत बढ़ने लगती है । कम उम्र में शादी हो नहीं सकती फिर इच्छा पूर्ति कैसे हो ? और इसलिए आज के उत्तेजनापूर्ण माहौल में मुझे बालविवाह कभी-कभी बड़े ही प्रासंगिक लगने लगते हैं ।

जहाँ देखो वहाँ एक से बढ़कर एक आकर्षक युवा होती हुई अल्हड़ सी लड़कियाँ जब अपने उभारों का प्रदर्शन करते हुए चलती थीं तो बस जी यही चाहता था कि नोच-खसोट-मसल डालूँ किन्तु इस कल्पना को बस उनकी वस्त्रविहीन कल्पना से ही और भड़काकर किसी प्रकार शारीरिक तनाव शांत करता था और सोचता था कि क्यों ये हसीनाएँ या मादाएँ ऐसे वस्त्र पहनती हैं कि जिनसे मुझमें गलत करने की इच्छा जागृत होती है......तो दोस्त बताते कि ऐसा सबको लगता है उनको भी....चलो किसी को मिलकर निपटाएँ ....और पहली ही कोशिश में हमने एक बड़ा हाथ मारा जबकि एक सर्वथा नवोदित कमसिन प्रेमी-प्रेमिका सुनसान में आलिंगनबद्ध मिल गए....दोनों को डरा-धमका कर उस लड़की को उसके ही प्रेमी की उपस्थिति में अनाड़ी तरीके किन्तु सबने एक-एक बार लूटा और फिर दो एक बार और भी....और इसी वजह से उसका प्रेमी चुप-चाप हमारे डर से और उसके अपवित्र हो जाने के कारण प्रमुख रूप से उससे किनारा कर गया....तो मैं यही सोचता हूँ कि ये लड़कियाँ  वीरानों में जाती ही क्यों हैं इश्क़ लड़ाने या यूँ ही भी ? मूर्ख लड़कियाँ बस एक अपरीक्षित आशिक़ जिसे हम जैसे बलात्कारी दो घूँसे में ढेर कर देते हैं ,पर अंधविश्वास करके चल देती हैं.....ज़रा भी नहीं सोचतीं कि अपने तथाकथित पूर्ण नैतिकतावादी आशिक़ का ही अकेले में मन डोल गया तो फिर उससे कौन बचाएगा ? ख़ैर ।

बाद में भी मैंने कइयों के साथ ऐच्छिक संबंध बनाए किन्तु यहाँ मैं सिर्फ अपने बलात्कार की घटनाएँ ही सुना रहा हूँ और मेरी नज़रों में बलात्कार का अर्थ आज जो महसूस कर रहा हूँ वह सचमुच यही है कि मैंने अनेक ऐच्छिक संबंध भी बलात्कार-स्वरूप किए .....जैसे कि जब मुझे किसी से प्यार हुआ ऐसा मैं समझता था , तो क़सम दे-दे कर उसका ख़ूब ‘’यूज़’’ किया और मेरी हक़ीक़त से वाक़िफ़ होते ही आख़िर उसने मुझे क्या छोड़ा मैंने ही जी भर जाने के कारण उसे बदचलन कहकर दूसरी से टाँका भिड़ा लिया , जबकि सच यही है कि हम जैसे लोग कभी प्यार कर ही नहीं सकते । हमारे लिए स्त्री केवल एक उपकरण या विशिष्ट अंग-मात्र है और प्यार-मोहब्बत का ढोंग महज उसे पाने का आवेदन-पत्र , जो यदि अस्वीकृत हो जाए तो हम मनमानी और ज़बरदस्ती पर उतर आते हैं । बलात्कार सदैव बाह्य कामुक वातावरण की देन नहीं होता कि सुनसान देखा और हो गए शुरू...बल्कि यह एक सर्वथा प्रावृत्तिक-मानसिक- चरित्रावस्था है...व्यक्ति विशेष की चरित्रगत विशेषता है कि वह आंतरिक रूप से नैतिक मूल्यों को कितना महत्व देता है ?

अबोध या नाबालिगों अथवा समलैंगिकों के साथ बचपन में भी मेरे मन में कभी वह इच्छा जागृत नहीं हुई किन्तु ( कु ) मित्र बताया बताया करते थे कि कामान्ध व्यक्ति को उसमें भी मज़ा आता है किन्तु वह मैंने कभी नहीं किया जबकि मेरे कुछेक मित्र और जिनकी बदौलत ही मैं इस तथाकथित आनंद को संसार का सर्वोपरि आनंद और उपलब्धि मान चुका था ,ऐसा करते थे भले ही ऊपर-ऊपर...और जहाँ तक प्रथम दृष्टया मेरा मानना है कि यह विहंगम दृष्टिपात से मोबाइल की देन है जिसमें ‘’ब्लू’’ फिल्मों की सुविधा उपलब्ध होती है और जिन्हे देख देख कर हम परम जिज्ञासु नवयुवा उत्तेजना से भर उठते थे और किसी भी प्रकार से खुद को ‘एनी हाऊ’ ठंडा करते थे । कई बार तो मुझ पर बलात्कार के झूठे इल्ज़ाम लगाए गए तब जबकि हम स्वेच्छा से मौज कर रहे थे किन्तु पकड़े जाने पर लड़की ने झूठ बोल दिया और मेरी खूब ठुकाई हुई । गुस्से में भरकर मैंने पुनः उन्ही लड़कियों के साथ कोशिश की और कामयाब भी हुआ और जिससे सफल नहीं हुआ उसे जान से मार डालने की धमकी देकर संबंध बनाए और बदला पूरा किया ।

आपको यह जानकर हैरत होगी कि मुझे जो ये बलात्कार और हत्या के इल्ज़ाम में फाँसी की सज़ा हुई है यह पहली बार नहीं है । हुआ यूँ कि _कोई कुछ भी कहे किन्तु प्यार सब चाहते हैं अतः मैं भी आगे चल कर सच्ची मोहब्बत का तलबगार हो गया...एक अच्छी लगने लगी उसने तपाक से मना कर दिया...मैं खूब रोया गिड़गिड़ाया वह मुझसे प्यार करने के लिए तैयार नहीं हुई तो मैंने ठान लिया कि इसका काम तमाम करना पड़ेगा और एक दिन मौका मिलते ही मैंने ज़बरदस्ती कर दी और सब कुछ साबित होने के बाद मुझे दस सालों की कठोर सज़ा भी हो गयी किन्तु अब मन में बदले की भावना और भी भड़क उठी । हालांकि मैं एक नंबर का ऐय्याशलंपटचरित्रहीन और बलात्कारी टाइप का हूँ किन्तु इतने मात्र से कोई सच्चे प्यार की जैविक और मानसिक तथा सामाजिक अनिवार्यता से इनकार नहीं कर सकता था भले ही मैं इसके सर्वथा नाक़ाबिल हूँ अतः जेल में रात दिन उसकी याद में तड़पता रहता और आख़िरकार मुझे यक़ीन हो गया की वह इस जन्म में तो मेरी कभी नहीं हो सकती । मैंने सोचा वह बेवफ़ा है जबकि मेरा प्यार एक तरफ़ा था किन्तु बार बार इस सबके बाद भी मुझे दिवास्वपनियों की तरह उसी का ख़याल रहता और मैं पागल हो उठता...और एक दिन मैंने ठान लिया कि एक और क़ोशिश करूँगा उसे पटाने और मनाने की । पता चला उसकी पंद्रह सौ  किलोमीटर दूर कहीं किसी अजनबी किन्तु अच्छी जगह शादी हो गयी मैं और भी घोर प्रतिहिंसा और ईर्ष्या से भर उठा...मैं शीघ्र ही जेल से भाग जाना चाहता था इसके लिए मैंने अपना व्यवहार बदल लिया और अपने सद्व्यवहार की जेलर पर ऐसी छाप छोड़ी कि एक दिन मौक़ा पाकर मैं भाग निकला और उसका पता लगाया कि वह कहाँ रहती है । मित्र साथ छोड़ चुके थे...जिन्होंने मुझे बिगाड़ा था...वे सुधर चुके थे...मैं उनके लिए अछूत सा हो गया था क्योंकि आरोप सिद्ध बलात्कारी का साथ देना खतरे से खाली नहीं था अतः अकेले ही चल पड़ा । दरअसल मैं उससे इतना प्यार करता था कि यदि ईश्वर मुझे माफ़ करदे और मेरा सारा अतीत पाकसाफ हो जाये तो मैं उसके साथ घर बसा लूँ किन्तु जानता था यह असंभव है आर यही बात मुझे रह रहकर कचोटती थी...बल्कि मैं केवल इतना भर उसके मुँह से सुनना चाहता था कि वह मुझे प्यार करती है भले ही ना करती हो किन्तु यह भी संभव नहीं हुआ मौक़ा मिलते ही मैंने उससे माफी माँगी , रिरियाकर प्रणय निवेदन किया और जैसा कि यह सब प्रत्याशित रूप से असंभव था वह नहीं मानी...थूक दिया मेरे मुँह पर...तिस पर एक लात भी जड़ दी...कुत्ता-कमीना-सूअर...क्या क्या नहीं कहा और जब मुझे यक़ीन हो गया कि वह नहीं मानेगी , और हाँ उसने मुझे “आई लव यू कहने से बेहतर जहर पीना है” यह भी कहामैं हताश हो गया और फिर वह सब हुआ जो कम से कम इस संसार में मैं उसके साथ नहीं करना चाहता था । मैंने भयंकर तरीके से उसे पीटते हुए उसके हाथ पैर बांधकर मुँह में टेप चिपकाकर उसके साथ वहशियाना ढंग से दुष्कृत्य किया...उसके अंग काट दिये...गुप्तांग में मोटा सरिया घुसेड़ दिया...गिट्टी भर दी...उसे बेहोश छोड़कर पागलों की तरह भाग गया । जल्द ही पकड़ा भी गया ।

सोचता हूँ प्यार में ऐसा क्या है कि यह दिखने में होता तो कुछ भी नहीं है किन्तु सब कुछ होता है । यदि वह मुझसे प्यार करने को मान जाती तो शायद मैं भले ही सारी उम्र जेल में उसकी याद में गुज़ार देता किन्तु क्यूँ इंसान ज़बरदस्ती झूठ-मूठ भी किसी से “आई लव यू” नहीं कह पाता जबकि उसके इस एक झूठ से किसी इंसान की ज़िंदगी बदल सकती है ? फिर ख़ुद ही उत्तर मिल जाता कि क्यों कहे ? प्यार कोई जबरदस्ती का सौदा नहीं है...प्यार ख़ुदा  है और यह क़िस्मत से मिलता है । कितनी हैरत की बात है कि सुंदर और योग्य व्यक्ति प्यार का उतना तलबगार नहीं होता जितना सर्वथा अयोग्य और बदसूरत इंसान प्यार का मोहताज होता है ।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति


16 comments:

Anonymous said...

Very good shabdchitra, its eye openar

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद !

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Nirmal Kumar जी !

Manjula said...

Do not worry that your life is turning upside down. How do you know that the side you are used to is better than the one to come?

मनोचिकित्सा की आवश्यकता होती है अधिकतर लोगों को जो हमारे देश में नहीं मिल पाती ..यौन ऊर्जा का सही दिशा में ऊर्ध्विकरण करने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए सभी शैक्षिक संस्थानों और कार्यालयों में ..नहीं तो कितने जीवन यूँ ही बर्बाद होते रहेंगे ..और परिवार भी ..

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

बिलकुल सही कहा आपने Manjula Sasena जी ! धन्यवाद !

Rajesh Gole said...

very nice story

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Rajesh Gole जी !

Pyar Ki Kahani said...

Interesting and Spicy Love Story, Pyar Ki Kahaniya and Hindi Story Shared By You Ever. Thank You.

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Pyar Ki Kahani जी !

Anonymous said...

nice

prritiy----sneh said...

achhi kalpana hai

shubhkamnayen

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! prritiy----sneh जी !

Anonymous said...

pasand ayi ye kahani

Anonymous said...

pasand ayi ye kahani

Unknown said...

एक एक शब्द आँखों में चित्र की तरह उभर आया | लेखन शानदार है आपका |

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! pooja shrivastava जी !

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...