जो भस्म हो चुका
वो , लकड़ा जलेगा क्या ?
मुरझा चुका जो गुल वो , फिर से खिलेगा क्या ?
मुरझा चुका जो गुल वो , फिर से खिलेगा क्या ?
है पास खुद ही जिसके , तंगी-कमी वहाँ ,
इनकार के सिवा कुछ , माँँगे मिलेगा क्या ?
हाथी पसीना अपना , छोड़े जहाँ , वहाँ ,
चीटों के ठेलने से , पर्वत हिलेगा क्या ?
तलवार से भी जिसकी , उधड़े न खाल भी ,
नाखून से उस इंसाँ , का मुँह छिलेगा क्या ?
जिसने कभी ज़मींं पर , पाँवोंं को ना रखा ,
अंगार-ख़ार पे वो , पैदल चलेगा क्या ?
आते ही जिसके गुंचे , चुन लोग नोच दें ,
वो पेड़ तुम बताओ , फिर भी फलेगा क्या ?
औलाद का न अपनी , जो पेट भर सके ,
सौग़ात में उसे इक , हाथी चलेगा क्या ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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