Monday, January 28, 2013

कविता : दृष्टव्य बंधन


जो तुम चले जाते हो
तो 
ये बहुत बुरा लगता है 
कि 
मुझे बिलकुल बुरा नहीं लगता 
मैं चाहता हूँ 
मुझे सबसे अच्छा लगे 
जब तुम मेरे पास रहो 
क्योंकि 
हम बंधे हैं उस बंधन में 
चाहे किसी परिस्थितिवश 
जब तक दृष्टव्य है यह बंधन 
सर्वमान्य है जिसमें यह 
कि एक पल का बिछोह 
या क्षण भर की ओझलता
कष्टकारी होती है 
रुद्नोत्पादी होती है 
सख्त कमी की तरह खलती है 
कुछ करो कि 
मैं तुम्हारे बिना 
अपना अस्तित्व नकारुं 
तुम्हे तड़प तड़प कर 
गली गली कूंचा कूंचा पुकारूं 
जैसे नकारता पुकारता था 
इस बुरा न लगने की परिस्थिति से पहले 
क्या हो चुका है हमें
तुम भी बहुत कम मिलते हो 
मुझे भी इंतजार नहीं रहता 
तुम जाने को कहते हो 
मैं रोकता नहीं हूँ 
तुम्हे भी अच्छा लगता है  
मुझे भी अच्छा लगता है 
हमें एक दूसरे से 
जुदा होते हुए 
सिर्फ बुरा लगना चाहिए
सिर्फ बुरा ही लगना चाहिए I 

-डॉ. हीरालाल प्रजापति 


मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...