Monday, January 21, 2013

कविता : ढाँपने वाले कपड़े सिलो

कविता कहानी उपन्यास या नाटक
जो चाहे उठाओ 
अभी भी शेष है 
साहित्य की तमाम विधाओं में 
आना वह नई बात 
जिसे पढने के लिए 
चाट डालता है बहुत कुछ अखाद्य भी 
बहुत दिनों का कोई भूखा जैसे 
बहुत कुछ अपठनीय भी 
न चाहकर भी पढ़ डालती है 
नई पुस्तकाभाव में 
एक पुस्तक प्रेमिका 
सचमुच
लेखक और कवि कुछ नहीं सिवाय दर्जी के 
सभ्य-आधुनिक-आकर्षक शब्दों में 
फैशन डिज़ाइनर के 
जो सिला तो करते हैं 
तन ढांपने को 
वस्त्र 
देखने में जो होते हैं 
बहुत आकर्षक और भिन्न 
सभी 
आतंरिक या बाह्य परिधान 
किन्तु सिलते तो आखिर कपडा ही हैं 
वह सूती खादी रेशम या टेरिकाट  चाहे जो हो 
वही हुक वही काज वही बटन 
वही जिप वही इलास्टिक 
(जैसे पञ्च तत्वों से निर्मित अष्टावक्री या
सुडौल काया किन्तु महत्वपूर्ण आत्मा )
साहित्यकार रूपी लेडीज़ टेलर 
गीतों के ब्लाउज 
कविता के पेटीकोट 
छंदों की मिडियाँ
मुक्तक  के टाप
उपन्यास की साड़ियाँ 
लघु कथाओं की चड्डियाँ
भले ही 
अपनी बुद्धिमत्ता को प्रमाणित करते हुए 
बाजारवाद के हिसाब से 
माँगानुसार सिल रहा है 
किन्तु वह कपडे को बदनाम कर रहा है 
क्योंकि उसका डिज़ाइन 
ढाँकने की बजाय 
नंगा कर रहा है I 

-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

3 comments:

पुनीत ओमर said...
This comment has been removed by a blog administrator.
hindswaraj said...

अच्छी कविता है

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! hindswaraj जी !

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