Thursday, January 24, 2013

ग़ज़ल : 17 - सुर्ख़ अंगार



सुर्ख़ अंगार-दुपहरी का माहताब रहूँ ।।
बर्फ़ रातों में जला गर्म आफ़्ताब रहूँ ।।
और दुनिया के लिए मैं कभी-कभी हूँँ ख़ला ,
तेरी ख़ातिर मैं हमेशा गुले गुलाब रहूँँ ।।
जाने क्या है कि ज़माने को तो जँचूँ मैं मगर ,
उनकी नज़रों में हमेशा बहुत ख़राब रहूँ ।।
मेरी तासीर कि प्यासों के वास्ते मैं कभी ,
सिर्फ़ पानी तो कभी ज्वार की शराब रहूँ  ,
ताज , झुमका , न दुपट्टा ,न हार कुछ भी नहीं ,
चाह है उनकी फ़क़त जूती या जुराब रहूँ  ।।
ख़ुद को भी मैं न मयस्सर हूँ एक पल के लिए ,
उनके हर हुक़्म को हर वक़्त दस्तयाब रहूँ ।।
( ख़ला =नुकीली वस्तु ; जुराब =जुर्राब ,मोजा ; दस्तयाब =उपलब्ध )

-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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