■ चेतावनी : इस वेबसाइट पर प्रकाशित मेरी समस्त रचनाएँ पूर्णतः मौलिक हैं एवं इन पर मेरा स्वत्वाधिकार एवं प्रतिलिप्याधिकार ℗ & © है अतः किसी भी रचना को मेरी लिखित अनुमति के बिना किसी भी माध्यम में किसी भी प्रकार से प्रकाशित करना पूर्णतः ग़ैर क़ानूनी होगा । रचनाओं के साथ संलग्न चित्र स्वरचित / google search से साभार । -डॉ. हीरालाल प्रजापति
Tuesday, December 31, 2013
*मुक्त-मुक्तक - ख़िदमत अदब की............
ख़िदमत अदब की हमने दूसरे ही ढंग की ॥
अफ़्साना लिक्खा कोई ना कभी ग़ज़ल कही ॥
बस जब किसी अदीब की शा’ए हुई किताब ,
लेकर न मुफ़्त बल्कि वो ख़रीदकर पढ़ी ॥
( ख़िदमत=सेवा, अदब=साहित्य, अफ़्साना=उपन्यास,कहानी, अदीब=साहित्यकार, शा’ए=प्रकाशित )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
मुक्तक : 432 - रिश्ता हो कोई ठोंक
रिश्ता हो कोई ठोंक बजाकर बनाइये ।।
शादी तो लाख बार सोचकर रचाइये ।।
अंजाम कितने ही है निगाहों के सामने ,
झूठी क़शिश को इश्क़ो मोहब्बत न जानिये ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Monday, December 30, 2013
मुक्तक : 431 - बचपन में ही इश्क़
बचपन में ही इश्क़ ने उसको यों जकड़ा ।।
है चौदह का मगर तीस से लगे बड़ा ।।
जिससे दोनों हाथ से लोटा तक न उठे ,
वो प्याले सा एक हाथ से उठाए घड़ा ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
मुक्तक : 430 - सबपे पहले ही से
सबपे पहले ही से बोझे
थे बेशुमार यहाँ ।।
अश्क़ टपकाने लगते सब
थे बेक़रार यहाँ ।।
सोचते थे कि होता अपना
भी इक दिल ख़ुशकुन
लेकिन ऐसा न मिला हमको
ग़मगुसार यहाँ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Sunday, December 29, 2013
मुक्तक : 429 - तक्लीफ़ो-ग़म-अलम से
तक्लीफ़ो-ग़म-अलम से
, शादमानियों से क्या ?
बेलौस-कामयाबियों , बरबादियों से क्या ?
अब जब न तेरा मेरा कोई वास्ता रहा -
मुझे तेरी तंदुरुस्ती
औ’ बीमारियों से क्या ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
मुक्तक : 428 - ज्यों आँखें मलते उठते हो
ज्यों आँखें मलते उठते
हो यों ही भीतर से जागो तुम ।।
मैं आईना हूँ अपने
सच से मत बचकर के भागो तुम ।।क़सीदे से कहीं उम्दा लगे ऐसी रफ़ू मारो ,
फटे दामन को कथरी की तरह मत हाय तागो तुम ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, December 28, 2013
मुक्तक : 427 - इतना अमीर था वो
इतना अमीर था वो ऐसा
मालदार था ,
धन का कुबेर उसके आगे ख़ाकसार था !
ताउम्र फिर भी क्यों कमाई में लगा रहा ,
धेला भी जिसका ख़र्च बस कभी कभार था ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Friday, December 27, 2013
मुक्तक : 426 - तेरी पसंदगी
तेरी पसंदगी को सोचकर
के कब कहे ?
दिल के ख़याल फ़ौरन औ’’
ज्यों के त्यों सब कहे ।।
ख़ुद के सुकून ख़ुद की
तसल्ली की गरज से ,
जितने भी अपनी ग़ज़लों
में मैंने क़तब कहे ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Thursday, December 26, 2013
मुक्तक : 425 - चाहता हूँ कि मेरे
चाहता हूँ कि मेरे दिल में तेरी मूरत हो ।।
तू किया करती मेरी रात दिन इबादत हो ।।
लैला मजनूँ से हीर राँझे टोला मारू से ,
अपनी दुनिया-ए-इश्क़ में ज़ियादा शोहरत हो ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Wednesday, December 25, 2013
मुक्तक : 422 - आँखें बारिश न बनें
आँखें
बारिश न बनें क्यों ये मरुस्थल होएँ ?
जब मशीन हम नहीं तो दर्द में न क्यों रोएँ ?
जब कसक उठती है होती
है घुटन सीने में ,
क्यों न अपनों से
कहें ग़म अकेले चुप ढोएँ ?
-डॉ.
हीरालाल प्रजापति
मुक्तक : 421 - तुझे कब उरूज मेरा
तुझे कब उरूज मेरा बस जवाल चाहिए था ?
मेरे चेहरे पे हमेशा इक मलाल चाहिए था ॥
तेरी रब ने सुनली तेरी ही मर्ज़ी के मुताबिक़ अब ,
मेरा हो गया है जीना जो मुहाल चाहिए था ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
मुक्तक : 420 - मूरत जो हुस्न की
मूरत
जो हुस्न की कोई पहला बनाएगा ॥
वो हू ब हू बस आपका
पुतला बनाएगा ॥
काढ़ेगा सताइश के
क़सीदों पे क़सीदे ,
रंग रुपहला तो रूप
सुनहला बनाएगा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
मुक्तक : 419 - कार सा जीवन था मेरा
कार सा जीवन था मेरा बैल गाड़ी हो गया ॥
मुझसे खरगोशों से कछुआ भी अगाड़ी हो गया ॥
हर कोई आतुर है मुझसे जानने पर क्या कहूँ ?
बाँटने वाले से मैं कैसे कबाड़ी हो गया ?
- डॉ. हीरालाल प्रजापति
Tuesday, December 24, 2013
सिर्फ़ इक बार अपनी..............
सिर्फ़ इक बार
अपनी
शक्ल वो दिखा जाता ॥
शक्ल वो दिखा जाता ॥
तरसती - ढूंढती
आँखों को चैन आ जाता ॥
आँखों को चैन आ जाता ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
कर्म दिवस-निशि और न कोई......
कर्म दिवस-निशि और न कोई
दूजा करते हैं ॥
तेरी सुंदरता की प्रतिपल
पूजा करते हैं ॥
दृग मूँदे मन-चक्षु फाड़
कुछ स्वप्न-तले तेरे ,
धुर सन्यासी भी दर्शन का
भूजा करते हैं ॥
(दृग=आँख ,मन-चक्षु=मन की आँख ,भूजा=भोग)
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
मुक्तक : 417 - काँटा कोई नुकीला
काँटा कोई नुकीला लगे कब कली लगे ?
सच कह रहा हूँ ज़िंदगी
न अब भली लगे ॥
जब से हुआ है उससे हमेशा को बिछुड़ना ,
बारिश भी उसकी सिर
क़सम अजब जली लगे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Monday, December 23, 2013
मुक्तक : 416 - बिन कुछ किए धरे
बिन कुछ किए धरे वो होते जाएँ क़ामयाब ।।
हम लाख उठा-पटक करें न कुछ हो दस्तयाब ।।
दिल भी जलाएँ हम तो दूर हो न अंधकार ,
वो जुल्फ़ ही सँवार दें तो ऊगें आफ़्ताब ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
मुक्तक : 415 - कुछ बह्र की , कुछ जंगलों की
कुछ बह्र की ,
कुछ जंगलों की आग बने हैं ॥
कुछ शम्अ ,
कुछ मशाल , कुछ चराग़ बने हैं ॥
वो तो बनेगा सिर्फ़
किसी एक का मगर ,
उसके फ़िदाई लाखों लोग-बाग
बने हैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Sunday, December 22, 2013
मुक्तक : 414 - रफ़्ता-रफ़्ता तेज़ से
रफ़्ता-रफ़्ता तेज़ से भी तेज़ चलती है ॥
गर्मियों में बर्फ़ सी
हर वक़्त गलती है ॥
शाह हो ,
दरवेश हो , बीमार या चंगा -
सबकी इस फ़ानी जहाँ में उम्र ढलती है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
मुक्तक : 413 - कपड़े-लत्तों में भी
कपड़े-लत्तों में भी हूँ
नंग-धड़ंगों की तरह ॥
मेरा कंघा बग़ैर दाँत का
, गंजों की तरह ॥
दिल-दिमाग़-आँख भी रखने
के बावजूद अक्सर ,
दर-ब-दर खाता फिरूँ ठोकरें अंधों की तरह ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, December 21, 2013
मुक्तक : 412 - न शर्म से न हमने
ना शर्म से न हमने कभी बेझिझक लिया ॥
कल भी नहीं लिया था
और न आज तक लिया ॥
पुचकारने वाले से सीखने
की चाह में ,
खाकर हज़ार ठोकरें न इक सबक़ लिया ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
मुक्तक : 411 - सर्द ख़ामोशी से
सर्द ख़ामोशी से सुनता तो रहा वो रात भर ,
एक भी आँसू न टपका आँख से उसकी मगर !
क्या मेरी रूदादे-ग़म
में मिर्च की धूनी नहीं ?
दास्ताने-इश्क़ मेरी आँख को है बेअसर ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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मुक्तक : 948 - अदम आबाद
मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...
