उसका जीवन सुधर गया होता
॥
मरने से कुछ ठहर गया होता
॥
तैरना जानता तो बिन कश्ती -
और पर बिन भी तर गया होता
॥
मुझसे वो बोलते तो मुश्किल
क्या ,
ग़ैर मुमकिन भी कर गया
होता ॥
ज़िंदगी से न तंग होता
तो ,
मौत से मैं भी डर गया
होता ॥
मैं भी परदेश से दिवाली
पर ,
काश ! होता तो घर गया
होता ॥
पोल उसकी न खुल गई होती
,
क्यों वो दिल से उतर गया
होता ?
तह में सूराख़ उस घड़े की
था ,
वर्ना बारिश में भर गया
होता ॥
ब्रह्मचारी था वर्ना वो
तुझपे ,
तुझको तकते ही मर गया
होता ॥
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
12 comments:
अति उत्तम जी
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (26-07-2014) को ""क़ायम दुआ-सलाम रहे.." (चर्चा मंच-1686) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद ! bhavnao ka sagar जी !
धन्यवाद ! मयंक जी !
बहुत खूब !!
Behtateen.......
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
धन्यवाद ! Lekhika M Shlok जी !
धन्यवाद ! abhishek shukla जी !
धन्यवाद ! Pratibha Verma जी !
बढिया गज़लष
धन्यवाद ! आशा जोगलेकर जी !
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