जो न कह पाया
जुबाँ से ख़त में सब लिखना पड़ा ।।
अपना
इज़हारे-तमन्ना आख़िरश करना पड़ा ।।1।।
इश्क़ के यों था हमेशा मैं ख़िलाफ़ अब क्या कहूँ ,
उनपे , मुझ जैसों को
भी , तकते ही बस मरना पड़ा ।।2।।
सच का ज़ीना सच ख़तरनाक और नीचा सा लगा ,
थोड़ा ऊँचा चढ़ने को मुझको बहुत गिरना पड़ा ।।3।।
दुश्मनों से तो लड़ा बेखौफ़ हो ताज़िंदगी ,
आस्तीं के साँपों
से पल-पल मुझे डरना पड़ा ।।4।।
क्योंकि वो मेरा
था अपना था अज़ीज़ों इसलिए ,
उस कमीने , उस लफ़ंगे
को वली कहना पड़ा ।।5।।
सिर्फ़ औलादों के मुस्तक़्बिल
के ही मद्देनज़र ,
दुश्मनों से दोस्ताना
उम्र भर रखना पड़ा ।।6।।
दूसरा कोई न मिल पाया
तो वो ही काम फिर ,
जिसको ठोकर पर रखा
झक मारकर करना पड़ा ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
4 comments:
vahvah khub kahi yah gazal , Dr sahub.
धन्यवाद ! shishirkumar जी !
बहुत सुन्दर !!
धन्यवाद ! Harsh Tripathi जी !
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