Saturday, January 11, 2014

111 : ग़ज़ल - जो न कह पाया जुबाँ से



जो न कह पाया जुबाँ से ख़त में सब लिखना पड़ा ।।
अपना इज़हारे-तमन्ना आख़िरश करना पड़ा ।।1।।
इश्क़ के यों था हमेशा मैं ख़िलाफ़ अब क्या कहूँ ,
उनपे , मुझ जैसों को भी , तकते ही बस मरना पड़ा ।।2।।
सच का ज़ीना सच ख़तरनाक और नीचा सा लगा ,
थोड़ा ऊँचा चढ़ने को मुझको बहुत गिरना पड़ा ।।3।।
दुश्मनों से तो लड़ा बेखौफ़ हो ताज़िंदगी ,
आस्तीं के साँपों से पल-पल मुझे डरना पड़ा ।।4।।
क्योंकि वो मेरा था अपना था अज़ीज़ों इसलिए ,
उस कमीने , उस लफ़ंगे को वली कहना पड़ा ।।5।।
सिर्फ़ औलादों के मुस्तक़्बिल के ही मद्देनज़र ,
दुश्मनों से दोस्ताना उम्र भर रखना पड़ा ।।6।।
दूसरा कोई न मिल पाया तो वो ही काम फिर ,
जिसको ठोकर पर रखा झक मारकर करना पड़ा ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

4 comments:

shishirkumar said...

vahvah khub kahi yah gazal , Dr sahub.

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! shishirkumar जी !

Unknown said...

बहुत सुन्दर !!

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Harsh Tripathi जी !

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