Friday, January 24, 2014

114 : ग़ज़ल - चाहता हूँ कि ग़म में भी


चाहता हूँ कि ग़म में भी रोओ न तुम ।।
पर ख़ुशी में भी बेफ़िक्र होओ न तुम ।।1।।
कुछ तो काँटे भी रखते हैं माक़ूलियत ,
फूल ही फूल खेतों में बोओ न तुम ।।2।।
रोज़ लुटता है आँखों से काजल यहाँ ,
इस जगह बेख़बर होके सोओ न तुम ।।3।।
जिससे तुम हो उसी से हैं सब ग़मज़दा ,
फिर अकेले-अकेले ही रोओ न तुम ।।4।।
याद से जिसने तुमको भुला रख दिया ,
भूल से उसकी यादों में खोओ न तुम ।।5।।
माना दुश्मन का है , है मगर हार ये ,
इसमें फूलों से काँटे पिरोओ न तुम ।।6।।
दब ही जाओ , कुचल जाओ , मर जाओ सच ,
बोझ ढोओ ; पर इतना भी ढोओ न तुम ।।7।।
लोग चलनी ही हमको समझने लगें ,
इतने भी हममें नश्तर चुभोओ न तुम ।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

5 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (25-01-2014) को "क़दमों के निशां" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1503 में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. जेन्नी शबनम said...

सभी शेर बेहतरीन, दाद स्वीकारें.

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! डॉ. जेन्नी शबनम जी !

Mohan Srivastav poet said...

wah bahut khubasurat gajal aapki,,,

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Mohan Srivastava Poet जी !

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