Sunday, December 15, 2024

सूर्य

 











जुगनुओं का भी न जो दीदार कर पाया ,

वो चला है सूर्य से ऑंखों को करने चार !!

इस तरफ़ से उस तरफ़ पुल से न जो पहुॅंचा ,

तैरकर सागर को वो करने चला है पार !!

सब ही कहते हैं कि वो ये कर न पाएगा ,

दो ही दिन में घर को बुद्धू लौट आएगा ,

बस मुझे ही क्यों न जाने पर हक़ीक़त में ,

फ़त्ह पर उसकी न होता शक़ तुनक इस बार !! 

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, December 2, 2024

आदमी

 



















हाथियों जैसा न बन , मत चींटियों सा भी ;

बाज भी मत बन , न बन , तू तितलियों सा भी ;

साॅंप मत बन , और न बन , तू केंचुए जैसा ;

गाय भी मत बन , न बनना , तेंदुए जैसा ;

मत कभी बनना तू मछली , या मगर कोई ;

ना तू बनना देवता , ना जानवर कोई ;

सीखले ये बात , औरों को भी ये सिखला ,

आदमी है तू ! तो बस ; बन आदमी दिखला ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 


Sunday, December 1, 2024

ग़ज़ल


 










पल को लगता है भलाई नहीं भलाई में ।।

पल में लगता है बुराई तो है बुराई में ।।

उनके तुम,उनके हम,उनके वो,दुनिया भी उनकी ,

अपना तो एक भी अपना नहीं ख़ुदाई में ।।

छू रहीं अर्श को पनडुब्बियाॅं भी उनकी सच ,

अपने राकेट भी औंधे पड़े हैं खाई में ।।

सिर हमारा है ये कमअक़्ल पीठ गदहे की ,

काम आता है फ़क़त बोझ की ढुलाई में ।।

आम ओ आसान हुई जाए दिन ब दिन अब तो ,

अब क़सम से न रहा लुत्फ़ आश्नाई में ।।

काट देते न ज़ुबाॅं तुम हमारी जो पहले ,

हमको मिलती न महारत क़लम घिसाई में ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 


Thursday, November 28, 2024

अंदाज़ ए बयाॅं

 











अंदाज़ ए बयाॅं मेरा न औरों सा और था !!

कहने का भी मुझमें न सलीका न तौर था !!

अल्फ़ाज़ असरदार न आवाज थी बुलंद ,

सच फिर भी किसी दौर में मेरा भी दौर था !!

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, October 22, 2024

चश्मा उतारकर देखो

 

नाव से और न पुल से बल्कि कभी , वो नदी तैर पारकर देखो ।।

ख़ुद पे जो गर्द का मुलम्मा है , वो खुरचकर बुहारकर देखो ।।

मन की ऑंखों से दूर से भी साफ़ , अपना दीदार वो कराता है ,

उसको जी भरके देखना हो तो , अपना चश्मा उतारकर देखो ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, October 21, 2024

चश्मा

 

जलते हुए मरुस्थल लगते थे मुझको गीले ।।
गहरे से गहरे गड्ढे दिखते थे उॅंचे टीले ।।
सारे हरे - हरे ही चश्मे से दिख रहे थे ,
चश्मा उतारकर जब देखा तो सब थे पीले ।।
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 


Friday, October 4, 2024

मुक्तक

 दरारों से ज्यों वर्जित दृश्य ऑंखें फाड़ तकते हैं ।।

यों ज्यों कोई व्यक्तिगत दैनंदनी चोरी से पढ़ते हैं ।।

कि ज्यों कोई परीक्षा में नकल करने से डरता है ,

कुछ ऐसे ढंग से एकांत में हम उससे मिलते हैं ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, September 17, 2024

ग़ज़ल

 


लगे सूरत से बस मासूम वैसे ख़ूब शातिर है ।।

वो दिखता पैरहन से भर मुसल्माॅं वर्ना काफ़िर है ।।

तुम्हें लगता नहीं करता वो ऐसे-वैसे कोई काम ,

हक़ीक़त में वो बस ऐसे ही कामों का तो माहिर है ।।

मेरी नज़रों में ऐसा ख़ुदग़रज़ अब तक नहीं आया ,

जो जब भी कुछ करे तो बस करे अपनी ही ख़ातिर है ।।

वो इक चट्टान का लोहे सरीखा था कभी पत्थर ,

मैं हैराॅं हूॅं वही गुमनाम अब मशहूर शाइर है ।।

किसी सूरत में उसका दिल न मुझ पर आएगा फिर भी ,

मेरा ये दिल उसी उस पर चले जाने को हाज़िर है ।।

वो रोज़ाना इरादा भागने का शहर का  करता ,

ये उस जंगल के गीदड़ का यक़ीनन वक़्त ए आख़िर है ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 


Sunday, September 15, 2024

ग़ज़ल

 








न होता तू कोई अजगर घिसटता केंचुआ होता ।।

तेरे पीछे हिलाता दुम न फिर मैं घूमता होता ।।

जो तू होता बला का ख़ूबसूरत तो यक़ीनन बस ,

तुझे कैसे करूॅं हासिल यही सब सोचता होता ।।

न होती तुझको दिलचस्पी मेरी बातों में तो तुझसे , 

मुख़ातिब होता भी तो लब न अपने खोलता होता ।।

अगर हक़ दे दिया होता मुझे दीदार का तूने ,

तो क्यों छुपकर दरारों से तुझे मैं देखता होता ।।

न दी होती जो तूने बद्दुआ बर्बाद होने की ,

मैं क्यों आकर किनारे पर नदी के डूबता होता ?

न बदले होंगे तेरे वो बुरे हालात ही वर्ना ,

अभी तक तो तू सच मिट्टी से सोना बन गया होता ।।

न की होती जो तूने दम ब दम धोखाधड़ी मुझसे ,

मैं अपनी ज़िंदगी रहते न तुझे बेवफ़ा होता ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, September 12, 2024

ग़ज़ल

 

ग़म न उतना उनके दिल से दूर होने का हुआ ।।

ऑंख से गिरके जो चकनाचूर होने का हुआ ।।

अपने आज़ू-बाज़ू वाले ही न पहचानें हैं जब ,

फिर कहाॅं मतलब कोई मशहूर होने का हुआ ?

एक उम्दा बन गया शा'इर यही बस फ़ाइदा ,

इश्क़ में उनके मेरे रंजूर होने का हुआ ।।

और कुछ होता तो शायद मैं नहीं बनता शराब ,

मेरा ये अंजाम तो अंगूर होने का हुआ ।।

ख़ाकसारी ने किया जितना मेरा नुकसान सच ,

उससे बेहद कम मुझे मग़रूर होने का हुआ !!

जो न करना था किया , पाना था जो वो खो दिया ,

इस क़दर घाटा मेरे मजबूर होने का हुआ ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

 


Sunday, September 8, 2024

ग़ज़ल

 


                                    बड़े प्यार से प्यार अगर कीजिएगा , 

तो पल भर नहीं उम्र भर कीजिएगा।।

ख़ुदारा ख़बर कुछ भी उनकी मिले तो ,

मुझे सबसे पहले ख़बर कीजिएगा ।।

बमुश्किल निकाला है तुमको नज़र से ,

न हॅंसते हुए दिल में घर कीजिएगा ।।

नहीं चाहकर भी तुम्हें चाह बैठूॅं ,

कुछ अपना यूॅं मुझ पर असर कीजिएगा ।।

भले सख़्त नफ़रत से लेकिन क़सम से ,

कभी मेरी जानिब नज़र कीजिएगा ।।

चिकनाई पर से गुज़रना पड़े तो ,

कभी पाॅंव अपने न पर कीजिएगा ।।

मिली है जो रो-रो के ये ज़िंदगी तो ,

इसे हॅंसते-हॅंसते बसर कीजिएगा ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, August 24, 2024

मुक्तक

 











नहीं होता कमीनों में कमीनापन वो जो होता ,

ज़माने के चुनिंदा और मुट्ठी भर शरीफ़ों में ।।

जवानों में भी जो बातें अकेले में नहीं होतीं ,

तुम्हें मालूम क्या ? होतीं हैं क्या बातें ख़रीफ़ों में ।।

न लग जाए नज़र ; कितने ही ऐसा सोचकर अक्सर ;

ख़ुशी में भी दिखें यों ज्यों अभी बिजली गिरी उनपर ;

मैं दावा कर रहा हूॅं ; हाॅं ! भरा होता है बेहद ग़म ,

बला के मस्ख़रों में भी , कई यों ही ज़रीफ़ों में ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

( मस्ख़रा=काॅमेडियन/ख़रीफ़=बूढ़ा /ज़रीफ़=खुशमिज़ाज )


Wednesday, August 21, 2024

ग़ज़ल

 











मेरा पागल हो ख़ुशी से झूम जाना हो ।।

जब भी रेगिस्तान में बारिश का आना हो ।।

वैसे चाहे कोई गाए या न गाए पर ,

हाॅं ! नहाते वक़्त सबका गुनगुनाना हो ।।

मैं ज़ुबाॅं अपनी न काटूॅं , होंठ भर सी लूॅं ,

जब किसी को कुछ नहीं मुझको बताना हो ।।

सर झुका चुप उनके आगे बैठ जाता बस ,

हाल ए दिल अपना उन्हें जब भी सुनाना हो ।।

मैं मुसीबत में नहीं लेता मदद उससे ,

मुझसे अपने दोस्त का कब आज़माना हो ?

लोग कहते हैं कि अक्सर टूट जाते हैं ,

इसलिए मुझसे न ख़्वाबों का सजाना हो ।।

राह चलते लूट लूॅं मैं ऑंख का काजल ,

लेकिन उनके दिल का मुझसे कब चुराना हो ?

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 


Monday, August 19, 2024

ग़ज़ल

 











जाने क्यों ? पर बना लिया मैंने ।।

ख़ुदको पत्थर बना लिया मैंने ।।

क्या कहूॅं ? हिर्स में उन्हें अपने ,

पाॅंव से सर बना लिया मैंने ।।

इस क़दर लाज़िमी था सो ख़ुदको ,

गिरवी धर घर बना लिया मैंने ।।

नींद में एक सख़्त पत्थर को ,

नर्म बिस्तर बना लिया मैंने ।।

चाहता था बनूॅं क़लम ही पर ,

ख़ुदको ख़ंजर बना लिया मैंने ।।

उसको पाना था इसलिए ख़ुदको ,

उससे बेहतर बना लिया मैंने ।।

तीर ओ तलवार को मिटा यों ही ,

एक ज़ेवर बना लिया मैंने ।।

जब न इंसाॅं मिले तो साॅंपों को ,

दोस्त अक्सर बना लिया मैंने ।।

एक बेरोज़गार मालिक को ,

अपना नौकर बना लिया मैंने ।।

जल्दबाज़ी में ख़ुद से बहके को ,

अपना रहबर बना लिया मैंने ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, August 17, 2024

मुक्तक











मेरे होकर मोहब्बत में कभी पागल नहीं आए ।।

न धुल पाए किसी पानी से वो काजल नहीं लाए ।।

है कबसे मौसम ए ग़म मेरे दिल में छा रहा फिर भी ,

अभी तक ऑंसुओं के ऑंख में बादल नहीं छाए ?

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 




Monday, August 12, 2024

मुक्तक

 











मैं तकता रहा राह उसकी बताई ।।

बुलाया था उसने मगर ख़ुद न आई ।।

कई शामें अपनी गयीं इस तरह भी ,

न पीयी गई और न उसने पिलाई ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, August 9, 2024

ग़ज़ल

 











कभी मैं ऊगता ; ढलता दिखाई देता हूॅं ।।

कभी थमा भी फिसलता दिखाई देता हूॅं।।

कुछ इस क़दर है मुझे भागदौड़ की आदत ,

खड़ा हुआ भी मैं चलता दिखाई देता हूॅं ।।

बची न मुझमें कहीं आग अब तो राख हूॅं मैं ,

भले ही शक्ल से जलता दिखाई देता हूॅं ।।

चला गया वो मेरा हाथ छोड़कर जबसे ,

मैं तबसे हाथ ही मलता दिखाई देता हूॅं ।।

मैं जल रहा हूॅं , मैं पत्थर ही हो रहा हूॅं पर , 

सभी को मोम पिघलता दिखाई देता हूॅं ।।

हूॅं जिनकी ऑंख का काॅंटा न जाने क्यों सबको ,

उन्हीं के दिल में मैं पलता दिखाई देता हूॅं ।।

मैं मारा-मारा फिरूॅं लेकिन उनको खा-पीकर ,

ख़ुशी से रोज़ टहलता दिखाई देता हूॅं ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, August 4, 2024

ग़ज़ल

 

सभी के साथ में उस दिन , सताने वो भी आए थे ।।
हमें मक़्तूल से क़ातिल , बनाने वो भी आए थे ।।
न जाने क्यों ; मगर जो चाहते थे हम मरेंगे कब ?
हमारी लाश पर ऑंसू , बहाने वो भी आए थे ।।
कई दुश्मन हमें बर्बाद करने पर तुले थे पर ,
बदलकर भेस को अपने , मिटाने वो भी आए थे ।।
फ़क़त हम ही न पहुॅंचे थे क़रीब उनके न आने को ,
हमारे पास आकर फिर , न जाने वो भी आए थे ।।
हमारे जख़्मों पे दुनिया तो लाई थी नमक मलने ;
अरे ! मरहम की जा मिर्ची , लगाने वो भी आए थे ।।
हमारे दिल को भूना सबने मिलकर , ग़म न माशा भर ,
मलाल इसका है मन-मन भर , जलाने वो भी आए थे ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति





Saturday, July 27, 2024

मुक्तक

 


ताज़े को फेंक खाते हम लुत्फ़ लेके बासा ।।

बारिश में भीगते पर रखते हैं ख़ुद को प्यासा ।।

कोई कमी नहीं है , ये तो है अपनी मर्ज़ी ,

सब ख़ुद लुटाके फिरते हाथों में पकड़े कासा ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, July 26, 2024

ग़ज़ल

 


डर है मिट जाऍं न पड़कर सख़्त ग़ुर्बत में ।।
इस क़दर बेकार हैं ; हैं इतनी फ़ुर्सत में ।।
हम मोहब्बत में बने थे , इसमें क्या शक़ है ?
पर मिटे भी हैं तो पड़कर हम मोहब्बत में ।।
सख़्त प्यासे हों तो आता है मज़ा जितना -
पानी पीने में ; न आता है वो शर्बत में ।।
हूॅं तो मैं तेरी मोहब्बत में पड़ा लेकिन ,
देखकर लगता मुझे जैसे हूॅं वहशत में ।।
बा-ख़ुदा मैं कब था खुशबूदार फूलों सा ,
अब महकने लग गया हूॅं तेरी सोहबत में ।।
सच कहूॅं तो मैं था कब लायक तुम्हारे पर ,
तुम लिखे थे रब के हाथों मेरी क़िस्मत में ।।
तब भी भाती थी मुझे तनहाई जब तुम थे ,
अब न तुम तब भी मज़ा क्यों आए ख़ल्वत में ?
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, July 23, 2024

ग़ज़ल

 











मुझे भर भिगोने तू बारिश न आना ।।

ज़माने को भी तर-ब-तर करते जाना ।।

मुझे भी पता है तेरे दिल में मेरा ,

न था और न है और न होगा ठिकाना ।।

हो कितनी भी फ़ुर्सत अगर मैं बुलाऊॅं ,

न चाहे तू मुझको तो अब फिर न आना ।।

अभी तुझको पाने का सोचा नहीं है ,

यूॅं ही तुझको पा लूॅंगा गर मैंने ठाना ।।

तेरे वास्ते मुझको मुश्किल न होगा ,

अरे ! चाॅंद-तारों को भी तोड़ लाना ।।

उसे मारकर अब मेरी ज़िद है मुझको ,

ख़ुद अपने ही हाथों अभी ज़ह्र खाना ।।

उसे देखना भी गवारा नहीं अब ,

कभी आर्ज़ू थी उसी उसको पाना ।।

तुम्हीं ज़िंदगी थे तुम्हीं चल दिए अब ,

मुझे ख़ुद को मरने से होगा बचाना ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, July 14, 2024

ग़ज़ल

 


कहा करती हैं जो ऑंखें हमारे लब नहीं कहते ।।

बहुत खुलते हैं लेकिन कोई सूरत सब नहीं कहते ।।

लिखा करते थे ताबड़तोड़ जब लिखना न आता था ,

ग़ज़ल होती है क्या समझे हैं जब से अब नहीं कहते ।।

कहा करते हो तुम बेशक़ हमेशा बात अच्छी ही ,

मगर कहना हो वो जिस वक़्त उसको तब नहीं कहते ।।

कहा करते हैं जो बेढब जिसे देखो उसे बेढब ,

वही आईने से भी ख़ुदको टुक बेढब नहीं कहते ।।

कई हैं अपने पत्थर के सनम को जो ख़ुदा बोलें ,

मगर माॅं-बाप को इक बार अपना रब नहीं कहते ।।

वो तब-तब मान जाते हैं बुरा उनकी बुरी सूरत ,

जिसे हम चौदहवीं के चाॅंद सी जब-जब नहीं कहते ।।

वो कहते हैं कि हम उनको कहें अपना ख़ुदा मुॅंह पर ,

जिन्हें हम दिल में शैतान-ओ-बला कब-कब नहीं कहते ?

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, July 11, 2024

ग़ज़ल

 हैं इक वो , पीक जिनको , ख़ून की उल्टी दिखाई दे ।।

यहाॅं मुझको , लहू भी , साॅस या चटनी दिखाई दे ।।

हरा चश्मा पहनने की , मुझे इतनी रही आदत ,

कि हल्दी भी मुझे अब तो , हरी मिर्ची दिखाई दे ।।

मोहब्बत में , मैं तुलसीदास से , कुछ कम नहीं पड़ता ,

कहूॅं कैसे कि नागिन भी , मुझे रस्सी दिखाई दे ?

मैं उसका क़द कुछ ऐसे नापता हूॅं अपनी ऑंखों से ,

कि वो बौनी , मुझे मुझसे , कुछ ऊॅंची ही दिखाई दे ।।

मैं भिड़ जाता हूॅं , अपने से भी ताक़तवर से , जब मुझको ,

कभी ग़ुस्से में , भूखी शेरनी , बकरी दिखाई दे ।।

भरा हो पेट , तो लड्डू भी , मिट्टी का लगे लौंदा ,

रहूॅं भूखा , तो हर गोलाई , इक रोटी दिखाई दे ।।

अमूमन सबको , माशूक़ा में , दिखता है ख़ुदा अपना ,

मुझे क्यों , अपनी महबूबा में , बस लड़की दिखाई दे ?

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

( पीक=पान का लाल थूक / साॅस=टोमेटो केचप ,लाल चटनी / अमूमन=प्रायः )

Wednesday, June 19, 2024

ग़ज़ल

 











पी-पीके ख़म्र मैंने जलाया बहुत जिगर ।।

आना न था क़रार सो आया न उम्र भर ।।

ईमान से वो करते थे जब मुझसे मोहब्बत ,

कहते थे मुझ में ऐब नहीं सिर्फ़ हैं हुनर ।।

रहता था उनकी ऑंख में हैरानगी तो ये ,

मुझ पर कभी न भूलके उनकी पड़ी नज़र ।।

हरगिज़ न वो मिलेंगे बख़ूबी ये था पता ,

जब तक मरा न उनको ढूॅंढता रहा मगर ।।

नश्शे में वह भले ही भले आदमी लगे ,

होशो हवास में वो मुझे सच लगे सुअर ।।

रह-रहके उसके साथ जब उससा ही हो गया ,

तब दी मुझे ये मुझसों ने तफ़्सील से ख़बर ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति

( जिगर=कलेजा / ख़म्र=मदिरा / तफ़्सील=विस्तार )

Saturday, June 1, 2024

ग़ज़ल

वो गर सख़्त ज़ख्मी मेरा दिल न करता ।।

तो पी-पीके मैं ख़ुद को ग़ाफ़िल न करता ।।

जो चेहरा करे उसका उतना उजाला ,

क़सम से कभी माह ए कामिल न करता ।।

हमेशा बनाता वो राई को पर्वत ,

कभी भी किसी ताड़ को तिल न करता ।।

वो कह देता लाइक़ बनूॅं उसके तो क्या ,

मैं उसके लिए ख़ुद को क़ाबिल न करता ?

किसी से मोहब्बत हुई ही कहाॅं थी ,

वगरना मैं क्या उसको हासिल न करता ?

अगर काम का उसके होता न मैं तो ,

मुझे ज़िन्दगी में वो शामिल न करता ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 


Wednesday, May 29, 2024

मुक्तक

कभी जो फूल थी मेरी , क़लम वो शर बना बैठा ।।

जो मुझमें सोई थी सूई , जगा ख़ंजर बना बैठा ।।

न आती है हॅंसी लब को , न रोना ऑंख को आए ,

तुम्हारा बेवफ़ा होना , मुझे पत्थर बना बैठा ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, May 25, 2024

मुक्तक

जोड़कर हाथ गिड़गिड़ाने पर , 

सचमुच इसरार पे भी तब उसने ;

अपने गालों तलक को छूने का , 

मुझको मौक़ा दिया था कब उसने ?

मैं न रूठा , न मैं तुनुक बिगड़ा , 

जाने इक रोज़ क्या हुआ लफड़ा ,

आके हौले से मेरे होंठों पर , 

रख दिए थे ख़ुद अपने लब उसने !!

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, May 19, 2024

मुक्तक

ज्यों ही हम ऊॅंची किसी मीनार से कूदें कि त्यों ,

ये सकल संसार बढ़-बढ़ लोकता है किसलिए ?

रेल की पटरी पे ज्यों ही अपना सिर रखते हैं त्यों ,

डाॅंटकर कोई न कोई टोकता है किसलिए ?

यों गहन दुख , घोर कठिनाई में जीवन आ फॅंसा ।।

जैसे दलदल में कोई हाथी समूचा जा धॅंसा ।।

घर लुटा , कपड़े फटे , रोटी छिनी फिर भी हमें ,

विष चबाने से भला जग रोकता है किसलिए ?

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, May 15, 2024

मुक्तक

वो मिलने किसी से अरे होके पागल ।।

लगाकर घटाओं का ऑंखों में काजल ।।

चले हैं पहन काले काग़ज़ के कपड़े ,

तो बरसें , न बरसें ये सोचें वो बादल ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, May 14, 2024

ग़ज़ल

मेरे मुर्दे को छूकर ज़रा देख लो ।।

है पड़ा सामने इक दफ़्आ देख लो ।।

तुम न शामिल हुए जिसकी मैयत में वो ,

था तुम्हारे लिए ही मरा देख लो ।।

तुमको पाके वो मुर्दा जो था जी उठा ,

खोके तुमको वो जिंदा जला देख लो ।।

उम्र भर साथ चलने का वादा फ़क़त ,

तोड़ दो दिन में तुमने दिया देख लो ।।

तुमने बोला था आओगे मैं उस जगह ,

राह तकता अभी तक खड़ा देख लो ।।

देखना हो जो सब्ज़ा ही चारों तरफ़ ,

बस हरा चश्मा ऑंखों लगा देख लो ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, May 12, 2024

दोहे

अब समझा वो क्यों रहें , अक्सर बहुत उदास ।।

आए थे हरि भजन को , ओटन लगे कपास ।।

बनके रहे वो उम्र भर , उनकी नज़र में ख़ास ।।

लेकिन दिल में एक लम्हा , वो कर सके न वास ।।

मंदिर-मस्ज़िद आजकल , किसको आते रास ?

अब तो केवल चाहिए , उन्नति और विकास ।।

कैसे उनकी बात पर , करलूॅं मैं विश्वास ?

वो नेता होते न तो , रख भी लेता पास ।।

सच कुछ ऐसे शेर हैं , रहते हैं जो पास ।।

भूख न हो बर्दाश्त तो , वो चर लेते घास ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, May 10, 2024

ग़ज़ल

इक को कोलाहल ने इक को चुप्पियों ने मार डाला ।।

इक मरा भजनों से इक को गालियों ने मार डाला ।।

हैं कई जो पूर्णिमा को चंद्र किरणों से मरे सच ,

कुछ को प्रातः काल की रवि रश्मियों ने मार डाला ।।

लोग प्रायः बर्छियों से होते हैं घायल सुना था ,

पर उसे रक्तिम गुलाबी पत्तियों ने मार डाला ।।

पृथ्वीवासी इक गगन प्रेमी था इक पाताल पूजक ,

पर्वतों ने इक को , इक को खाइयों ने मार डाला ।।

एक बॅंटवारे को लेकर गाॅंव के कुछ भाइयों को ,

उनके अपने ही सगे कुछ भाइयों ने मार डाला ।।

साॅंप-बिच्छू पालने वाले को इक दिन जाने क्यों पर ,

घोर अचरज बाग की कुछ तितलियों ने मार डाला ।।

मात्र इक बंदर के बहकावे में आकर दिन दहाड़े ,

इक महावत को बहुत से हाथियों ने मार डाला ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 


Tuesday, May 7, 2024

ग़ज़ल

 यों वो ज़िंदगी में मेरी कब न था ?

मगर ये भी है वो ही वो सब न था ।।

चलाता था जो हुक़्म मुझ पर मेरा ,

वो मेहबूब था मेरा साहब न था !!

ये क़ब्ज़ा जो उसका मेरे दिल पे है ,

मिला था वो पहली दफ़्आ तब न था ।।

दिल-ओ-जाॅं से करता था मैं प्यार उसे ,

था सब कुछ वो मेरा मगर रब न था ।।

अगर चाहता चाह लेता उसे ,

बदन इतना भी उसका बेढब न था ।।

न मतलब रखा उसने मुझसे कभी ,

उसे जब तलक मुझसे मतलब न था ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, May 6, 2024

मुक्तक

बात बेबात देखभाल यार मारे है ।।

जिस्म मेरा छुए न दिल पे मार मारे है ।।

क्यों न मैं उसका नाम मौत आज से रख दूॅं ,

वो मुझे रोज़-रोज़ बार-बार मारे है ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 


Sunday, May 5, 2024

ग़ज़ल

 मेरे बिन ज्यों उदासी में वो अब डूबा नहीं रहता ।।

तो मैं भी उसकी फुर्क़त में मरे जैसा नहीं रहता ।।

मेरे कदमों की ऑंखें अपनी मंज़िल पर लगीं रहतीं ,

नहीं है पैर तो क्या मैं कभी बैठा नहीं रहता ।।

हथौड़े मारते रहती है दुनिया मेरे दिल पर ; पर ,

ये जुड़ जाता है फ़ौरन बाख़ुदा टूटा नहीं रहता ।।

ये कहते हैं कि जिसने चोंच दी चुन भी वही देगा ,

जहां कैसा भी हो कोई कभी भूखा नहीं रहता ।।

अगर दिन-रात , सुब्हो शाम ग़म ही ग़म मिलें तो फिर ,

कोई मग़्मूम ज़्यादा दिन तक अफ़्सुर्दा नहीं रहता ।।

न रोज़ी का ठिकाना है न घर बस इसलिए घूमें ,

कोई यों ही तो सारी उम्र बंजारा नहीं रहता ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

( फ़ुर्क़त=वियोग / मरे=लाश / बाख़ुदा=ईश्वर की सौगंध / चुन=अन्न कण या भोजन /मग़्मूम=दुखी / अफ़्सुर्दा=उदास / बंजारा=खानाबदोश )


Saturday, May 4, 2024

ग़ज़ल

 

आ गया हूॅं तुझपे मरने ।।

या'नी सच्चा प्यार करने ।।

हाॅं तेरी यादों में पहले ,

ऑंखों से गिरते थे झरने ।।

तू बनाले अपने घर का ,

मुझको नौकर पानी भरने ।।

तब भी करता बातें इल्मी ,

जब गई हो अक़्ल चरने ।।

कुछ न कुछ हर वक़्त उठाने ,

या लगा रहता हूॅं धरने ।।

अब चला हूॅं क़ब्र में मैं ,

पाॅंव लटकाकर सुधरने ।।

सब सही है पर लगी क्यों ,

ज़िन्दगी अब कुछ अखरने ?

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 


Monday, April 29, 2024

ग़ज़ल

मत लेकर आ गुटखा या तंबाकू मुझको ।।

गर ला तो दो मूॅंगफली या काजू मुझको ।।

जब से मुर्गा-मछली का शौक़ीन हुआ सच ,

तब से अक्सर मिलता खाने कद्दू मुझको !!

ख़ुश मैं भी हो सकता हूॅं पर शर्त यही है ,

जो चाहूं मैं ठीक वही ला दे तू मुझको ।।

दुश्मन के मिटने पर देखा सब होते ख़ुश ,

जाने क्यों आ जाते थोड़े ऑंसू मुझको ?

वो इक भूखा-प्यासा शेर था जो दिखने में ,

लगता था खाकर सोया इक आहू मुझको ।।

माना मेरा पूरा तन है बालों वाला ,

पर इंसाॅं हूॅं लोग कहें क्यों भालू मुझको ?

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...